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प्राकृतिक चिकित्सा
गांधी जी का जीवन में बहुत पहले से ही आधुनिक दवाओं से विश्वास नहीं रहा था। उनका यह पक्का विश्वास था कि अच्छा स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए केवल इतना ही जरूरी है, कि आहार के सम्बम्ध में मनुष्य कुदरत के नियमों का पालन करे। शुद्ध और ताजी हवा का सेवन करे, नियमित योगासन करे, साफ स्वच्छ वातावरण में रहे और अपना हृदय शुद्ध रखे। ऐसा करने के बजाय आज मनुष्य को आधुनिक चिकित्सा पद्धति के कारण जी भरकर विषयभोगों में लीन रहने का स्वास्थ्य और सदाचार का हर नियम तोड़ने का और बाद, केवल व्यापार के लिए तैयार की जाने वाली दवाओं के जरिये शरीर का इलाज करने का प्रलोभन मिलता है। इसके प्रति मन में विद्रोह की भावना होने के कारण गांधीजी ने अपने लिए दवाओं के उपयोग के बिना रोगों पर विजय पाने का मार्ग खोजने का प्रयत्न किया। आज की चिकित्सा पद्धति रोग को केवल शरीर से संबंध रखने वाली चीज मानकर उसका उपचार करना चाहती है, परन्तु गांधी जी तो उसको सम्पूर्ण और समग्र रूप में देखते थे । इसलिए वे अनुभव से ऐसा मानते थे कि शरीर की बीमारी मुख्यतः मानसिक या आध्यात्मिक कारणों से होती है और उसका स्थाई उपचार केवल तभी हो सकता है, जब जीवन के प्रति मनुष्य का सम्पूर्ण दृष्टिकोण ही बदल जाये। इसलिए उनकी राय में शरीर के रोगों का उपचार मुख्यतः आत्मा के क्षेत्र में ब्रह्मचर्य द्वारा सिद्ध होने वाले आत्मसंयम तथा आत्मजय में स्वास्थ्य के विषय में कुदरत के नियमों के ज्ञान पूर्ण पालन में तथा स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन के लिए अनुकूल भौतिक और सामाजिक वातावरण निर्माण करने में खोजा जाना चाहिए। अतः कुदरती उपचार की गांधी जी की कल्पना उस अर्थ से कहीं अधिक व्यापक है जो आज उस शब्द से सामान्यतः समझा जाता है। कुदरती उपचार रोग के हो जाने के बाद केवल उसे मिटाने की पद्धति नहीं है परन्तु कुदरत के नियमों के अनुसार जीवन बिताकर रोग को पूरी तरह रोकने का प्रयत्न है। और गांधी जी मानते थे कि कुदरत के नियम वही हैं, जो ईश्वर के नियम हैं । इस दृष्टि से रोग के कुदरती उपचार में केवल मिट्टी, पानी, हवा, धूप, उपवासों तथा ऐसी दूसरी वस्तुओं के उपयोग का ही समावेश नहीं होता है। बल्कि
24 अक्टूबर 2004 जिनभाषित
क्या कहते थे बापू
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डॉ. वन्दना जैन
उससे भी अधिक उसमें ईश्वर के कानून के द्वारा हमारे शारीरिक, मानसिक, नैतिक और सामाजिक सम्पूर्ण जीवन को बदल डालने की बात आती है। इसलिए रामनाम जपने का अर्थ है मनुष्य के ह्रदय का तथा उसकी जीवन पद्धति का सम्पूर्ण परिवर्तन, जिससे ईश्वर के साथ उसका मेल होता है । और सम्पूर्ण जीवन के मूल स्रोत ईश्वर से वह ऐसी शक्ति और जीवन प्राप्त करता है, जो रोगों पर सदा ही विजयी सिद्ध होते हैं ।
गांधीजी के मन में रोगियों की सेवा-सुश्रुषा करने तथा गरीबों की सेवा करने की उत्कंठा बनी रहती थी । चूंकि भारत एक विकासशील और गरीब देश है। इसकी 80 प्रतिशत आबादी गावों में रहती है। लोग आधुनिक दवाओं में उतना पैसा खर्च नहीं कर सकते तथा उनसे फायदा भी उन्हें उतना नहीं मिल पाता। यही कारण है कि वे भारत में प्राकृतिक चिकित्सा लाना चाहते थे। कुदरत के समीप रहकर बिताये जाने वाले सादे और सरल जीवन की वे बहुत कीमत करते थे। ऐसा सादा और सरल जीवन जीकर ही उन्होंने स्वास्थ्य के सादे नियम बनाये थे । और उन पर अमल किया था। शाकाहार और अन्नाहार में उनकी धार्मिक आस्था थी इसीकारण से उन्होंने आहार संबंधी अनेक सुधार किये थे। जिनका आधार व्यक्तिगत प्रयोगों से प्राप्त प्रत्यक्ष परिणामों पर था। डॉ. कूने ने जो कुदरती उपचार पर लिखा है, उससे गांधी जी बहुत अधिक प्रभावित हुये थे। उनका यह विश्वास था कि स्वास्थ्य के सादे नियमों का पालन करके मानव शरीर मन और आत्मा को पूर्ण स्वस्थ स्थिति में रखा जा सकता है। उन्होंने सामान्य रोगों
कारणों का पता लगाने का प्रयत्न किया और उसके लिए कुदरती उपचार के सादे इलाज बताये ।
उन्होंने अपने इस विश्वास के साथ 'उरूली कांचन' में कुदरती उपचार का केन्द्र खोला, कि गरीब लोग मंहगी दवाऐं नहीं ले सकते और मंहगे इलाज नहीं करवा सकते। इस केन्द्र की स्थापना के पीछे एक कारण यह भी था कि गांधी जी ऐसा मानते थे कि स्वास्थ और आरोग्य विज्ञान के विषय में उन्होंने जीवन भर जो प्रयोग किये उनका लाभ देश के गरीब लोगों को उठाने का मौका देना उनका परम कर्त्तव्य है ।
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