Book Title: Jinabhashita 2004 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 30
________________ निश्चित चौके में जाकर आहार करते हैं, अपनी इच्छानुसार | कोरा नुमाइशी ही रहता है। ऐसे मुक्ति द्वेषी, मिथ्यादृष्टि भोजन बनवाकर आहार लेते हैं, भोजन में पत्ती तथा अभक्ष | भवाभिनन्दी मुनियों की अपेक्षा देशव्रती श्रावक अविरत वस्तुओं का सेवन करते हैं, गर्म रोटी खाते हैं, आइसक्रीम | सम्यग्दृष्टि गृहस्थ तो भी धन्य हैं, प्रशंसनीय हैं तथा कल्याण आदि का सेवन करते हैं। कोई स्पर्शन इन्द्रिय विजय तथा के भागी हैं........ मुनि मात्र का दर्जा गृहस्थ से ऊँचा नहीं परिषहों से डरकर गृहस्थों के विलासितापूर्ण घरों में निवास है। मुनियों में मोही और निर्मोही दो प्रकार के मुनि होते हैं, करते हैं, गर्मी में साबुन लगाकर स्नान करते हैं, मच्छरदानी मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ का दर्जा ऊँचा है। यह उससे लगाकर रात्रि विश्राम करते हैं, प्रातः काल आहार के बाद श्रेष्ठ है। अविवेकी मुनि से विवेकी गृहस्थ भी श्रेष्ठ है और 2-3 घंटे सोते हैं आदि । कोई ब्रह्मचर्य महाव्रत का ध्यान न इसलिए उसका दर्जा अविवेकी मुनि से ऊँचा है। रखते हुए अकेली आर्यिका के साथ अकेले रहते हुए विहार ऐसे लौकिक मुनि का लौकिक कार्यों में प्रवृत्ति का करते हैं। क्षेत्रपाल- पद्मावती की आराधना एवं पूजा स्वयं आशय मुनिपद को आजीविका का साधन बनाना, ख्याति, भी करते हैं और दूसरों को करने का आदेश देते हुए गृहीत लाभ, पूजादि के लिए सब कुछ क्रियाकाण्ड करना, वैद्यक, मिथ्यात्त्व की पुष्टि में लगे रहते हैं, आदि संसार को बढ़ाने ज्योतिष, मन्त्र-तन्त्रादिक का व्यापार करना, पैसा बटोरना, वाले कार्यों को करने वाले साधुओं को, जिनको अपने व्रतों लोगों के झगड़े-टन्टे में फंसना, पार्टीबंदी करना, के पालन करने की चिंता ही नहीं है केवल येन-केन- साम्प्रदायिकता को उभारना और दूसरे ऐसे कृत्य करने जैसा प्रकारेण अपने यश और मान के पुष्ट करने की ही चिन्ता है। हो सकता है, जो समता में बाधक तथा योगीजन के योग्य न उनको पुलाक की कोटि में कदापि नहीं लिया जा सकता। हो। सार यह है कि निर्ग्रन्थ रूप से प्रव्रजित-दीक्षित जिनमुद्रा ऐसे साधुओं के बारे में श्री योगसार प्राभृत, अधिकार- के धारक दिगम्बर मुनि दो प्रकार के होते हैं- एक वे जो 8, श्लोक नं. 18 से 24 तक के श्लोकों की व्याख्या में श्री | निर्मोही, सम्यग्दृष्टि हैं, मुमुक्षु,मोक्षाभिलाषी हैं, सच्चे में जुगलकिशोर मुख्तार ने इसप्रकार कहा है मोक्षमार्गी हैं, अलौकिकीवृत्ति के धारक संयत हैं और इसलिए यद्यपि जिन लिंग निर्ग्रन्थ जैन मुनि मुद्रा को धारण असली जैन मुनि हैं। दूसरे वे, जो मोह के उदयवश दृष्टि करने के पात्र अतिनिपुण एवं विवेक सम्पन्न मानव ही होते विकार को लिये हए मिथ्यादष्टि हैं. अंतरंग से मक्तिद्रेषी. हैं। फिर भी जिनदिक्षा लेने वाले साधुओं में कुछ ऐसे भी बाहर से दम्भी मोक्षमार्गी हैं लोकाराधन के लिए धर्मक्रिया निकलते हैं जो बाह्य में परमधर्म का अनुष्ठान करते हुए भी | करने वाले भवाभिनन्दी हैं, संसारावर्तवर्ती हैं, फलत: असंयत अन्तरंग से संसार का अभिनन्दन करने वाले होते हैं...... वे । हैं और इसलिए असली जैन मुनि न होकर नकली मुनि आहार आदि चार संज्ञायों के तथा उनमें से किसी के भी | अथवा श्रमणाभास हैं। दोनों की कुछ बाह्यक्रियाएं तथा वशीभूत होते हैं...... ऐसे घरों में भोजन करते हैं जहां अच्छे | वेश समान होते हुए भी दोनों को एक नहीं कहा जा सकता रूचिकर एवं गरिष्ठ स्वादिष्ट भोजन मिलने की अधिक | है, दोनों में जमीन-आसमान का सा अन्तर है। एक कगरु सम्भावना होती है। परिषहों के सहन से घबराते तथा वनवास । संसार-भ्रमण करने-करानेवाला है तो दूसरा सुगुरु बंधन से से डरते हैं......... ब्रह्मचर्य महाव्रत को धारण करते हुए भी | छूटने-छुड़ाने वाला है। गुप्त रूप से उसमें दोष लगाते हैं....... पैसा जमा करते हैं, इसी से आगम में एक को वन्दनीय और दूसरे को पैसे का ठहराव करके भोजन करते हैं.......... अपने इष्टजनों - अवन्दनीय बतलाया है। संसार के मोही प्राणी अपनी सांसारिक को पैसा दिलाते हैं........... ताला बंद, बाक्स या अलमारी | इच्छाओं की पूर्ति के लिए भले ही किसी परमार्थतः अवन्दनीय रखते हैं...... बाक्स की चाबी कंमडलों आदि में रखते | की वन्दना-विनायादिक करें- कुगुरु को गुरु मान लें। हैं.......... पीछी में नोट छुपा कर रखते हैं, अपनी पूजाएं | परन्तु एक शुद्ध सम्यग्दृष्टि ऐसा नहीं करेगा। भय, आशा, बनवाकर छपवाते हैं, अपनी जन्मगाँठ का उत्सव मनाते हैं, स्नेह और लोभ में से किसी के वश होकर उसके लिए वैसा जिस लोकाराधन में ख्याति, लाभ,पूजादि जैसे अपना कोई | करने का निषेध है। लोकिक स्वार्थ सन्निहित होता है, उस क्रिया को करते उपरोक्त प्रकरण से स्पष्ट है कि उपरोक्त प्रकार के हैं......... जिनका धर्मसाधन पुण्यबंध ही नहीं कभी-कभी | शिथिलाचारी मुनियों को पुलाक अथवा वकुश की कोटि में दृष्टि भेद के कारण पाप बंध का कारण होता है......... | नहीं रखा जा सकता है और ऐसे साधु दर्शनीय अथवा जिनको संसार का अभिनंदन दीर्घ संसारी होने से मुक्ति की वंदनीय नहीं हैं। बात नहीं रूचती........ सब कुछ क्रियाकाण्ड ऊपरी और 1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) 28 अक्टूबर 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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