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सौ एक?
समाधान- भगवान ऋषभदेव के जीवनचरित्र पर सबसे प्रामाणिक वर्णन आदिपुराण लेखक आचार्य जिनसेन का माना जाता है, अतः आपके प्रश्न के उत्तर में इसी ग्रन्थ के आधार पर चर्चा करते हैं। श्री आदिपुराण पर्व 16, श्लोक नं. 4, 5, 6 में इस प्रकार कहा है- अर्थ इस प्रकार भगवान ऋषभदेव के यशस्वती महादेवी से भरत के पीछे जन्म लेने वाले 99 पुत्र हुए (अर्थात् महाराजा भरत को मिलाकर 100 पुत्र हुए) वे सभी पुत्र चरम शरीरी तथा बड़े प्रतापी थे ॥ 4 ॥
तदनन्तर जिस प्रकार शुक्ल पक्ष पश्चिम दिशा में चन्द्रमा की निर्मल कला को उत्पन्न करता है उसी प्रकार भगवान ऋषभदेव के यशस्वती नामक महादेवी ने ब्राह्मी नाम की पुत्री उत्पन्न की ॥ 5 ॥ आनन्द पुरोहित का जीव जो पहले महाबाहु था और फिर सर्वार्थसिद्धि में अहमेन्द्र हुआ था । वह वहाँ से च्युत होकर भगवान ऋषभदेव की द्वितीय पत्नी सुनन्दा के देव के समान, बाहुबलि नाम का पुत्र हुआ । भावार्थ- भगवान ऋषभदेव के यशस्वती नामक रानी से भरत आदि 100 पुत्र और सुनन्दा नामक रानी से केवल बाहुबली उत्पन्न हुए अर्थात् कुल 101 पुत्र थे ।
किन्हीं ग्रन्थों में भगवान ऋषभदेव के कुल 100 पुत्र भी कहे गये हैं I
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जिज्ञासा मिथ्यादृष्टि देवों के पीत लेश्या होती है। फिर भी वे मरकर एकेन्द्रिय क्यों बनते हैं?
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समाधान- उपरोक्त प्रश्न के समाधान में सिद्धान्तसार दीपक रचियता भट्टारक सकलकीर्ति, अधिकार - 15 के श्लोक नं. 382 से 388 का अर्थ दिया जाता है। " जब सर्व देवों की छह मास पर्यन्त की अल्पायु अवशेष रह जाती है, तब उनके शरीर की कान्ति मन्द हो जाती है । दुर्विपाक से गले में स्थित उत्तम पुष्पों की माला म्लान हो जाती है और मणिमय आभूषणों
मन्द हो जाता है। इस प्रकार के मृत्यु चिन्ह देखकर मिथ्यादृष्टि देव अपने मन में इष्ट वियोग आर्तध्यान रूप इस प्रकार का शोक करते हैं कि हाय ! संसार की सारभूत स्वर्ग की इस प्रकार की सम्पत्ति छोड़कर अब हमारा अवतरण स्त्री के अशुभ, निन्दनीय और कुत्सित गर्भ में होगा ? अहो ! विष्टा और कृमि आदि से व्याप्त उस गर्भ में दीर्घकाल तक अधोमुख पड़े रहने की वह दुस्सह वेदना हमारे द्वारा कैसे सहन की जायेगी ? इस प्रकार के आर्त्तध्यान रूप पाप से भवनत्रिक और सौधर्मेशान कल्प में स्थित मिथ्यादृष्टि देव स्वर्ग से च्युत होकर तिर्यग्यलोक में दुखों से युक्त वादर, पर्याप्त, पृथ्वीकायिक, जलकायिक और प्रत्येक वनस्पति
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कायिक जीवों में जन्म लेते हैं। जहाँ गर्भ का दुख नहीं होता ॥ 388 ॥
जिज्ञासा- क्या वर्तमान के शिथिलाचारी साधुओं को पुलाक- वकुश आदि निर्ग्रन्थों में माना जा सकता है? क्या शिथिलाचारी मुनि वंदनीय है?
समाधान- उपरोक्त प्रश्न के समाधान में सर्वप्रथम हमको पुलाक, वकुश मुनि की परिभाषा समझ लेना आवश्यक होगा। सर्वार्थसिद्धि अध्याय-9, सूत्र - 46 की टीका में इस प्रकार कहा गया है
उत्तरगुणभावनापेतमनसोव्रतेष्वपि क्वचित् कदाचित् परिपूर्णतामपरिप्राप्नुवन्तो विशुद्धपुलाकसादृश्यात्पुलाका इत्युच्यन्ते । नैर्ग्रन्थ्यं प्रति स्थिता अखण्डितव्रताः शरीरोपकरणविभूषानुवर्तिनो विवक्तपरिवारा मोहशबलयुक्ता वकुशा: ।
अर्थ- जिनका मन उत्तर गुणों की भावना से रहित है जो कहीं पर और कदाचित व्रतों में भी परिपूर्णता को नहीं प्राप्त होते हैं वे अविशुद्ध पुलाक (मुर्झाये हुए धान्य) के समान होने से पुलाक कहे जाते हैं। जो निर्ग्रन्थ होते हैं, व्रतों का अखण्ड रूप से पालन करते हैं, शरीर और उपकरणों की शोभा बढ़ाने में लगे रहते हैं, परिवार से घिरे रहते हैं और विविध प्रकार के मोह से युक्त होते हैं वे वकुश कहलाते हैं।
उपरोक्त दोनों भेदों को आचार्यों ने भावलिंगी अर्थात् छटवें, सातवें गुणस्थानवर्ती साधु कहा है। दोनों ही साधुओं की परिभाषा में वकुश तो व्रतों का अखण्ड रूप से पालन करते हैं परन्तु पुलाक तो कहीं पर और कदाचित् व्रतों में भी परिपूर्णता को नहीं प्राप्त होते हैं। यहां पर 'कहीं पर और कदाचित्' शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है जो इस बात का परिचायक
किला मुनि कहीं पर कदाचित् व्रतों की परिपूर्णता को प्राप्त नहीं रहते, शेष में व्रतों का परिपूर्ण पालन करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पुलाक मुनि की परिभाषा देखकर ही आपने अपना प्रश्न लिखा है, जबकि स्पष्ट बात यह है कि लाक व्रतों की परिपूर्णता को प्राप्त रहते हैं । परन्तु उनमें क्वचित् कदाचित् दोष लगता है ।
वर्तमान के साधुओं में जो शिथिलाचार व्यास है, उसको हम पुलाक या वकुश की परिभाषा में गर्भित नहीं कर सकते। लाक में तो क्वचित् कदाचित् दोष लगते हैं, परन्तु वर्तमान
शिथिलाचारी साधुओं में तो निरंतर दोष हैं। कोई सव स्थावर जीवों की हिंसा की चिंता न करते हुए पंखे, कूलर अथवा ए.सी. में रहते हैं, कोई एषणा समिति के दोषों को ध्यान में न रखते हुए सचित्त फलों का भक्षण करते हैं, एक
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अक्टूबर 2004 जिनभाषित 27
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