Book Title: Jinabhashita 2004 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 10
________________ जा सकता है, लेकिन बना करके नहीं खायेगा। इसका क्या | जाता, विरोध क्या करें । अज्ञान का विरोध थोड़े ही किया मतलब? हाँ, कोई दे दे रूखा-सूखा, उसको बना दे। जाता है, उसको समझाया जाता है। उन्होंने बहुत मीठे इसलिए 11वीं प्रतिमा वाला एक स्थान पर बैठ करके, शब्दों के द्वारा कहा, इधर आओ जरा भट्टारको', महाराज मठाधीश बन करके, आहार की व्यवस्था करता है, ये क्या कहना चाह रहे हो, 'आपके हित की बात कहना चाह आगम सम्मत नहीं, किन्तु आगम विरुद्ध है। पहले विरुद्ध रहे हैं। महाराज बहुत अच्छी बात है, 'धर्म का संरक्षण है, उसको छोड़ दो, फिर बाद में क्या करना है, 'करनीज्जम करो', .... हो, तो करो। जिसके पास धर्म नहीं, वह क्या उत्सज्जामि बाद में अकरनीज्जम ओस्सरामि,' पहले छोड़ो, धर्म का संरक्षण करेगा... समझने का प्रयास नहीं किया जा बिना छोड़े एक स्थान पर रहना, क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णदासी रहा है, और जो समझाता है, उसे कहते हैं, यह विरोध कर दास' सब हैं, यहाँ पर ऐसी स्थिति में उन मठों में, धर्म के रहा है। विरोध क्या है और बोध क्या है, ये उनको मालूम निमित्त कुछ देंगे, तो क्या होगा बताओ आप। आचार्य श्री नहीं है । इसका नाम अवर्णवाद नहीं है, प्रकाश देना है। जो शांतिसागर महाराज ने कहा. जब श्रवणबेलगोला में गये अंधकार में हैं, स्वयं अंधकार में रहें और दूसरे को प्रकाश थे और यह दिवाकर साहब ने लिखा, क्योंकि हमने तो दें, यह शोभा नहीं देता। श्रीमानों और धीमानों को समझना कुछ देखा नहीं, आ.श्री शांतिसागर महाराज ने समस्त संघ भी चाहिए, बहुत वर्ष व्यतीत हो गये, यदि अकाल में के लिए कहा, 'इस मठ में किसी को आहार चर्या के लिए प्रलय लाना चाहते हो, तो बात अलग है। इसके द्वारा धर्म नहीं जाना है, ' यदि उनके माध्यम से धर्म का संरक्षण हो क्षीण होता चला जा रहा है। रहा है, तो वहाँ का अन्न तो और पवित्र माना जायेगा। वहाँ ____ अंत में कहना चाहूँगा, इनको जगतगुरु भी कहा जाता धर्म का संरक्षण हो रहा है, वहाँ लेने में क्या बाधा है? नहीं, वहाँ का आहार लिया नहीं जा सकता। त्यागियों के है। अब समझ में नहीं आता, जिन्होंने महाव्रत को अंगीकार किया, उनको जगतगुरु कहा जाता है। अपनी कुटिया का लिए वहाँ पर जाना निषेध है। 'आप लोग श्रावकों के यहाँ नाम जगत है, तो बात अलग है। समाज में रहते हो, तो जाओ' कहा। महाराज वे श्रावक नहीं है क्या? 'न समणो समाज को जगत मानते हो, तो किसने कहा तुमको जगत व सामणो सावयो वा' यह कन्दकन्द भगवान ने घोषणा गरु। परम्परा से। कौन सी परम्परा से? कहां से प्रारम्भ हई कर दी, न श्रमण रहे न श्रावक रहे। श्रावक होता तो दैनन्दनीय परम्परा? महावीर भगवान से? नहीं। कुन्दकुन्द, से? नहीं। कार्य करता, जो चूल्हा-चक्की आदि जो कुछ भी है, आ फिर समन्तभद्र से? नहीं। एक भट्टारक जिसके पास कोई जाते। श्रमण होता है तो एक बार अन्यत्र से जा करके या प्रतिमा नहीं, वह क्षुल्लक दीक्षा कैसे दे सकता है? किस क्षुल्लक होता तो भैक्षासन करके आ जाता। ये वहाँ पर आधार पर? आचार संहिता यदि सुरक्षित नहीं रहेगी, जैनत्व रहते हैं । हम यह पूछना चाहते हैं कि यदि प्रतिमाएँ नहीं हैं, नहीं रहेगा। कोई भी ब्रह्मचारी आ गया और हाथ में पीछी तो श्रावक तो हैं, तो मुनिमहाराज कोई भी आ जाते, उनको लेकर आएगा, तो आहार दोगे क्या? इच्छामि बोलोगे क्या? पड़गाहन कर लेना चाहिए, श्रावक तो उसी का नाम है। उनका अतिथिसंविभाग कहाँ गया? न अतिथि रहे, बोलो न! गलत हो गया। प्रतिश्रय क्या है, ये उनको न अतिथिसंविभाग रहा। अब सोचने की बात है, कटु तो | मालूम नहीं। और ये संरक्षण कर रहे हैं। किसका संरक्षण लग रहा होगा, महाराज ये क्या कहा आपने? नहीं, आ. कर रहे? इस पिच्छिका के माध्यम से संयम की कहाँ शांतिसागर महाराज ने समाधि के समय अंतिम उपदेश सुरक्षा कर रहे? परिग्रह की रक्षा के लिए, तो ये है ही नहीं दिया, उन्होंने कहा, सुनो, भट्टारको, 'सुनो, धर्म का संरक्षण पिच्छिका। जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर परिग्रह रखो करो' ये कहा। लिखा है कि नहीं? तो जीवों के परिमार्जन के लिए। जो उपकरण एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखते हैं, तो उपकार होता है। परिग्रह से लिखा है, सही कह रहा हूँ मैं। और ये आ रहा है कभी उपकार नहीं होता, जो गृहस्थों के पास है। उसके अखबारों में। ये बहुमान के साथ कहते हैं, सोचो, विचार लिए चाबी और कूँची लगती है और पीछी-कमण्डल के करो। जो आ. शांतिसागर महाराज के अभिप्राय को भी लिए चाबी और कूँची नहीं लगती। महाराज, जब कभी नहीं समझता और आप भी नहीं समझ पा रहे हो। क्या आचार्य महाराज ने इसका समर्थन किया होगा, उन्होंने गड़बड़ हो जाए, एक पीछी और अपने पास रख लो स्पेयर में और जब गड़बड़ हो जाए, तो निकाल लेना। नहीं, जब विरोध नहीं किया। विरोध करना तो बहुत जघन्य काम हो 8 अक्टूबर 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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