Book Title: Jinabhashita 2004 07 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 4
________________ होता वही है जो सामने आ जाता है आचार्य श्री विद्यासागर जी श्रमण शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी ने मध्यप्रदेश की | कुछ भी बाहर से करना है, हो चुका है। अब जो कुछ है, वह संस्कारधानी जबलपुर के तिलवारा घाट स्थित गोशाला में 25 | भीतरी है। भीतर देखना आवश्यक है। बाहर देखना गलत है। मुनिवरों के साथ दिनाँक 1 जुलाई 2004 को वर्षायोग-स्थापना | समयसार को याद रखने वाली मूर्ति सार को याद रखती है। की। भक्ति प्रारंभ करने से पूर्व उपस्थित हजारों श्रावकों को गुरुजी की साधना अनूठी थी उनका वरदहस्त हम पर रहा। संबोधित करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि श्रमणसंघ वर्षाकाल | उन्होंने जीवन का मंथन करके सार तत्त्व ग्रहण कर लिया था। की प्रतीक्षा में रहता अत: आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी की रात्रि के आप भी करने योग्य कार्य को करते चले जाइए। कार्य करने के प्रथम पहर में वर्षायोग की प्रतिष्ठापना और कार्तिक की अमावस्या | प्रति निष्ठा रखिए। यह बात हमने गुरु महाराज से सीखी। जब पर निष्ठापन करता है। केवल दयोदय शब्द कहने से किसी | तक प्राण हैं, तब तक कर्त्तव्य के प्रति जागरुकता रखनी चाहिए। संस्था की ओर दृष्टि जाती है, तो वह जबलपुर पर जाती है। गुरुजी ने कहा था संघ को गुरुकुल बना देना। नमक का महँगा इतना अवश्य है कि करने या कहने से काम नहीं होता, होता होना और मुद्रा का तैरना राष्ट्र के लिये घातक है। तीर्थ या मंदिर वही है जो सामने आ जाता है। पर जो धर्मध्वजा लहराती है, उसके लहराने में मन, वचन, काय ___ हम तो जीवन पर्यन्त के लिए बंधे हुए हैं। जब तक मुक्ति | और धन आपका होता है। उसमें से धन हटाने पर शेष हमारे का सम्पादन नहीं होता, हमने अपने आपको भगवान् की शरण पास है। धर्म की प्रभावना बढ़े, ऐसा उपदेश देना चाहिए। में बाँध लिया है। यह गुरु (आचार्य ज्ञानसागर जी) की आज्ञा | समाज का धन के प्रति मोह छूट जाये, तो साधु का उपदेश है। हम तो देव-गुरु-शास्त्र से बंधे हैं । गुरु महाराज ने कहा था | सार्थक हो जाता है। पेट तो भरा जा सकता है, पेटी नहीं भरी जा कि दुकान बड़ी खोलना चाहिए छोटी नहीं। दुकान चलती- सकती। पेटी को भरने का अंत नहीं है। राग की प्रवृत्ति सीमित फिरती होगी, तो उससे ग्राहक जुड़ जाते हैं। जो देव-गुरु-शास्त्र होने की प्रभावना हो जाये, तो उपदेश सार्थक हो जाएगा। आप से जुड़ा है, उसका संकल्प दृढ़तर होता जाता है। मोक्षमार्ग में | अपने धन के बाँध में लीकेज आने दें। धन को करुणा, परमार्थ कदम रखने के बाद मोहमार्ग की ओर नहीं जाना चाहिए अन्यथा के कार्य में बहने दें, रोके नहीं। धनसंग्रह की सीमा रखना मोक्षमार्ग समाप्त हो जाएगा। हमें हमारे गुरु ने ऐसे सूत्र दिए | चाहिए। जिनके माध्यम से शिष्य मोक्षमार्ग के सूत्र से बँध जाता है, उसका बाल भी बाँका नहीं होता। गुरु महाराज ने कहा- जो प्रेषक-निर्मल कुमार पाटोदी, इन्दौर धर्म/धर्मात्मा 0000000 उज्जवल भावधारा का नाम ही धर्म है। धर्म तो अपने श्रम की निर्दोष रोटी कमाकर देने में ही है। - 'स्व' से पलायन नहीं, 'स्व' के प्रति जागरण का नाम ही धर्म है। - आत्मा का सम परिणाम ही स्वभाव है वही समता है वही धर्म है। - धर्म, प्रदर्शन की बात नहीं किन्तु दर्शन, अन्तर्दर्शन की बात है। - धर्म वृक्ष से गुजरी हुई सद्भावना की हवा सभी को स्वस्थ एवं सुन्दर बनाती है। धर्म का अर्थ यही है कि दीन-दुखियों को देखकर आँखों में करुणा का जल छलके, अन्यथा नारियल में भी छिद्र हुआ करता है। साभारः सागर द समाय 2 जुलाई 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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