Book Title: Jinabhashita 2004 07 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 2
________________ पूजनीया आर्यिका श्री मृदुमति जी का ससंघ वर्षायोग कलशस्थापन आर्थिका चीनिर्णयमति जी आर्थिका श्री मूदुमति जी आर्थिकावी प्रसन्नमति जी परमपूज्य आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज की विशुद्ध परिणामों से मुनि को देता है और जो मुनि ऐसे सुयोग्य शिष्या पूजनीया आर्यिका श्री 105 मृदुमति माता निदोष आहार उपकरण आदिग्रहण करते हैं उन दोनों को जी, पूजनीया आर्यिका श्री 105 निर्णयमति माताजी एवं महान फल मिलता है।जो आहारादि प्रशस्त और निदोष हैं, पूजनीया आर्यिका श्री 105 प्रसन्जमति माताजी, संघस्थ वात, पित्त, कफ आदि दोषों को शांत करने वाले हैं. सर्व ब. पुष्पा दीदी एवं ब. सुनीता दीदी के चातुर्मास मंगल रसों से युक्त है, ऐसे आहारादि गुरुओं को पड़गाहन आदि कलश की स्थापना मध्यप्रदेश की राजधानी झीलों की करके नवधा भक्ति पूर्वक श्रद्धा आदि सात गुणों से युक्त नगरी भोपाल के दिगम्बर जैन मंदिर चौक में 4 जुलाई होकर मेरे द्वारा दिए जाने चाहिए. यह दाता की शुद्धि है। 2004 को विशाल जनसमूह के बीच विधिविधान पूर्वक तथा सभी आहारादिविधि त्याज्य ही है, मुझे इस शोभन की गई। पूज्य माता जी ने इस मंगल अवसर पर अपने आहार के ग्रहण करने से क्या प्रयोजन है? यत् किंचित् उद्बोधन में कहा-मुनिआर्यिकाओं को दो बातों पर ध्यान मात्र भी प्रासुक आहार ग्रहण करके उदर भरना चाहिए, देना होता है, पहली भैक्ष्यशुद्धि और दूसरी ऐसापरिणाम होनापात्रकीआत्मशुद्धि है। प्रतिष्ठापनासमिति। उन्होंने मूलाचार के आधार पर सम्पर्ण मल गणों और उत्तर गणों में मल योग प्रधानवत बतलाया कि आहारचर्या के निदोष होने पर ही वत.शील रहत, शाल भिक्षाशुद्धि है, जिसका वर्णन कत कारित अनुमोदना TM और गुण रहते हैं. इसलिए मुनि सदैव आहारचर्या को शुद्ध रहित पासक भोजन की समय पर उपललिता के रूप में करके विचरण करते हैं अर्थात् आहार कोशुद्धि हा प्रधान जिन पवचन में किया गया है अतःभिक्षाशद्धि को छोड़कर है, वही चारित्र है और सभी में सारभूत है। यही बात उपवास, त्रिकाल योग, अनुष्ठान आदि अन्य योगों को वे आर्यिकाओं पर लागू होती है। मुनि और आर्शिकाओं को ही करते हैं, जो विज्ञान अर्थात् चारित्र से रहित है और 46दोषों से रहित आहारग्रहण करना चाहिए।अतः श्रावकों परमार्थ को नहीं जानते हैं। तात्पर्य यही है कि आहार की को भी यह ज्ञान होना चाहिए कि वे 46दोष कौन से हैं। शुद्धिपूर्वक जो थोडाभीतपकिया जाता है वह शोभन है। श्रावकों को यह ज्ञान होने पर ही वे मुनि और आर्यिकाओं को भैन्यशुद्धिकाध्यान रखते हुए आहार दे सकते हैं। परिमित और प्रशस्त आहार प्रतिदिन भी लेना श्रेष्ठ है किन्तु चर्याशुद्धिरहित अनेक उपवास करके अनेक विशद्ध भावों से कमों का क्षय होता है। इसलिए जो निदोष प्रकार की पारणाएँ श्रेष्ठ नहीं हैं। आहार या हिंसादि पापरहित निदोष उपकरण या दोनों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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