________________
नवकोटि विशुद्धि
स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया
जिन आहारादि के उत्पादन में मुनि का मन, वचन, काय के अशुद्धि सब दानविधि को सदोष बना देगी और दाता व पात्र द्वारा कृत कारित अनुमोदितरूप कुछ भी योगदान न हो ऐसा शुद्ध हैं मगर देय कहिए दान का द्रव्य अशुद्ध है, तो यहाँ भी इस आहारादि का लेना मुनि के लिए नवकोटि विशुद्धिदान कहलाता एक की अशुद्धि ही समस्त दानविधि को सदोष बना डालेगी। है। अर्थात् जो आहारादि मुनि के मन के द्वारा कृत-कारित- इसी तरह दाता और देय शुद्ध हैं मगर पात्र अशुद्ध है, तो वह अनुमोदित न हो, न उनके वचन के द्वारा कृत-कारित अनुमोदित दानविधि भी सारी की सारी सदोष ही समझी जाएगी। हो ऐसे आहारादि का दान नवकोटि विशुद्ध दान कहलाता है। जिनसेनाचार्य का यह कथन पं. आशाधर ने सागारधर्मामृत मतलब कि देयवस्तु के सम्पादन में मुनि का कुछ भी सम्पर्क अध्याय 5 श्लोक 47 की टीका में तथा अनगारधर्मामृत के 5वें नहीं होना चाहिये इससे आहारादि के निमित्त हआ आरम्भ दोष अध्याय के अन्त में और शुभचन्द्र ने कार्तिकेयानप्रेक्षा की गाथा मुनि को नहीं लगता है। वरना वह मुनि अध:कर्म जैसे महादोष | 390 की टीका में उद्धत किया है। का भागी होता है। अनेक ग्रन्थों में नवकोटि विशुद्धि का यही किन्तु सोमदेव ने यशस्तिलक के निम्न श्लोक में जिनसेन स्वरूप लिखा मिलता है। किन्तु आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण | के उक्त कथन के विरुद्ध लिखा है - पर्व 20 में नवकोटि विशुद्धि का एक अन्य स्वरूप भी लिखा है। भक्तिमात्र प्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम्। यथा
ते संतः सन्त्वन्तां वा गृही दानेन शुद्ध्यति॥ 818 ।। दातु विशुद्धता देयं पात्रं च प्रपुनाति सा।
अर्थ - भोजन मात्र के देने में साधुओं की क्या परीक्षा शुद्धिर्देयस्य दातारं पुनीते पात्रमप्यदः 736 ॥ करनी? वे चाहे श्रेष्ठ हों या हीन हों। गृहस्थ तो उन्हें दान देने से पात्रस्य शुद्धि र्दातारं देयं चैव पुनात्यतः। शुद्ध हो ही जाता है।
नवकोटि विशुद्धं तदानं भूरिफलोदयम् ॥137॥ सोमदेव ने इस श्लोक में यह शिक्षा दी है कि मुनि को अर्थ - दाता की शुद्धि देय और पात्र को पवित्र बनाती है, आहार दान देते वक्त गृहस्थ को यह नहीं देखना चाहिए कि यह देय की शुद्धि दाता और पात्र को शुद्ध करती है एवं पात्र की | मुनि आचारवान् है या आचार भ्रष्ट है। उसकी जाँच-पड़ताल शुद्धि दाता देय को पवित्र करती है। इस प्रकार का नव कोटि करने की जरूरत नहीं है। मुनि चाहे कैसा ही अच्छा बुरा क्यों न शुद्ध दान प्रचुर फल का देने वाला होता है।
हो, गृहस्थ को तो आहारदान देने का अच्छा ही फल मिलेगा। इसमें जो लिखा है उसका अभिप्राय ऐसा है कि दाता, देय सोमदेव का ऐसा लिखना जिनसेनाचार्य की आम्नाय के (दान का द्रव्य) और पात्र (दान लेने वाला) इन तीनों में यदि | विरुद्ध है, क्योंकि जिनसेन ने ऊपर यह प्रतिपादन किया है कि तीनों ही अशुद्ध हों, तब तो वह दानविधि दोषास्पद है ही। किन्तु पात्र की शुद्धि दाता और देय दोनों को पवित्र बनाती है। प्रकारांतर इन तीनों में से कोई भी दो अशुद्ध हों और एक शुद्ध हो, तो उस से इसी को यों कहना चाहिए कि पात्र की (दान लेने वाले साधु हालत में भी वह दान दोषास्पद ही है। यही नहीं तीनों में से यदि की) अशुद्धि दाता और देय को भी अशुद्ध बना देती है। भावार्थदो शुद्ध हों और सिर्फ एक ही कोई सा अशुद्ध हो, तब भी वह उत्तमदाता और उत्तम देय के साथ-साथ दान लेने वाला भी दानविधि दोषास्पद ही समझनी चाहिए। मतलब कि दानविधि सुपात्र होना चाहिए तब ही दानी को दान का यथेष्ट फल मिलता में दाता. देय और पात्र ये तीनों निर्दोष होने चाहिए तब ही वह | है। बहुत फल को दे सकती है। तीनों में कोई सा एक भी यदि । महर्षि जिनसेन और सोमदेव के इन परस्पर विरुद्ध वचनों सदोष होगा तो वह दान विधि प्रशस्त नहीं मानी जा सकती। | में किनका वचन प्रमाण माना जाए, यह निर्णय हम विचारशील
उक्त श्लोकद्वय में लिखा है कि दाता की शुद्धि देय और पात्र | पाठकों पर ही छोड़ते हैं। को पवित्र बनाती है। इस तरह लिखने का भाव यह है कि यद्यपि देय और पात्र शुद्ध हैं मगर दाता अशुद्ध है तो इस एक की
जैन निबन्ध रत्नावली भाग-2 से साभार
8 जुलाई 2004 जिनभाषित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org