Book Title: Jinabhashita 2004 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ श्रावक, उनमें भी विशेष रूप से सम्पन्न श्रावक, धर्म के नाम पर | जीवन मूल्यों का संरक्षण होगा, अन्यथा केवल प्रदर्शन और होने वाले बाह्य आडम्बरों में अधिक रुचि ले रहे हैं। आध्यात्मिक अपने अहम् की पुष्टि में हमारी अस्मिता ही समाप्त हो जाएगी। साधना के स्थान पर वह प्रदर्शनप्रिय हो रहा है। धर्म प्रभावना | आज न केवल नेताओं के बड़े-बड़े होर्डिंग्स लग रहे हैं, किन्तु का नाम लेकर आज के तथाकथित श्रावक और उनके तथाकथित हमारे साधुओं के भी होर्डिंग्स लग रहे हैं। संचार साधनों की गुरुजन दोनों ही अपने अहं और स्वार्थों के पोषण में लगे हैं। | सुविधाओं के इस युग में महत्त्व मूल्य और आदर्शों को दिया आज धर्म की खोज अन्तरात्मा में नहीं, भीड़ में हो रही है। हम जाना चाहिए, न कि व्यक्तियों को, क्योंकि उसके निमित्त से भीड़ में रहकर अकेले रहना नहीं जानते, अपितु कहीं अपने आज साधु समाज में प्रतिस्पर्धा की भावना जन्मी है और उसके अस्तित्व और अस्मिता को भी भीड़ में ही विसर्जित कर रहे हैं। परिणाम स्वरूप संघ और समाज के धन का कितना अपव्यय हो आज वही साधु और श्रावक अधिक प्रतिष्ठित होता है, जो भीड़ | रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। यह धन भी साधुवर्ग के इकट्ठी कर सकता है। बात कठोर है, किन्तु सत्य है। आज जो | पास नहीं है, गृहस्थ वर्ग के पास से ही आता है। आज पूजा, मजमा जमाने में जितना कुशल होता है, वही अधिक प्रतिष्ठित | प्रतिष्ठा, दीक्षा, चातुर्मास, आराधना और उपासना की जो पत्रिकाएँ भी होता है। छप रही हैं, उनकी स्थिति यह है कि एक-एक पत्रिका की ___ आज सेवा की अपेक्षा सेवा का प्रदर्शन अधिक महत्त्वपूर्ण सम्पूर्ण लागत लाखों में होती है क्या यह धन सत्साहित्य या बनता जा रहा है। मैं पश्चिम के लायन्स और रोटरी क्लबों की । प्राचीन ग्रन्थों के, जो भण्डारों में दीमकों के भक्ष्य बन रहे हैं. बात ही नहीं करता, किन्तु आज के जैनसमाज के विकसित होने | प्रकाशन में उपयोगी नहीं बन सकता है? वाले सोशल ग्रुप की भी बात करना चाहता हूँ। हम अपने हृदय | मैं यह सब जो कह रहा हूँ उसका कारण साधकवर्ग के प्रति पर हाथ रखकर पूछे कि क्या वहाँ सेवा के स्थान पर सेवा का मेरे समादारभाव में कमी है ऐसा नहीं है, किन्तु उस यथार्थता प्रदर्शन अधिक नहीं हो रहा है? मेरे इस आक्षेप का यह आशय को देखकर मन में जो पीड़ा और व्यथा है, यह उसी का प्रतिफल नहीं है कि सोशल ग्रुप जैसी संस्थाओं का मैं आलोचक हूँ, है। बाल्यकाल से लेकर जीवन की इस ढलती उम्र तक मैंने जो वास्तविकता तो यह है कि आज समाज, संस्कृति और धर्म को | कुछ अनुभव किया है, मैं उसी की बात कह रहा हूँ। मेरे कहने बचाए रखना है, तो ऐसी संस्थाओं की नितांत आवश्यकता है। का यह भी तात्पर्य नहीं है कि समाज पूरी तरह मूल्यविहीन हो मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि आज एक मंदिर, उपाश्रय या | गया है। आज भी कुछ मुनि एवं श्रावक हैं, जिनकी चारित्रिक स्थानक कम बने और उसके स्थान पर गाँव-गाँव में जैनों के निष्ठा और साधना को देखकर उनके प्रति श्रद्धा और आदर का सोशल क्लब खड़े हों, किन्तु उनमें हमारे धर्म, दर्शन और संस्कृति | भाव प्रकट होता है, किन्तु सामान्य स्थिति यही है। आज हमारे का संरक्षण होना चाहिए। आचार की मर्यादाओं का पालन होना | जीवन में और विशेषरूप से हमारे पूज्य मुनि वर्ग के जीवन में चाहिए। आज के युवा में जैन संस्कारों के बीजों का वपन हो | जो दोहरापन यथार्थ या विवशता बनता जा रहा है, उस सबके और वे विकसित हों, इसलिए ऐसे सामाजिक संगठन आवश्यक | लिए हम ही अधिक उत्तरदायी हैं। हैं, किन्तु यदि उनमें पश्चिम की अंधी नकल से हमारे सांस्कृतिक | आज हमें अपने आदर्श अतीत को देखना होगा, अपने पूर्वजों मूल्य और सांस्कृतिक विरासत समाप्त होती है, तो उनकी | की चारित्रनिष्ठा और मूल्यनिष्ठा को समझना होगा। मात्र समझना उपादेयता भी समाप्त हो जाएगी। ही नहीं, उसे जीना होगा, तभी हम अपनी अस्मिता की और यह सत्य है कि आज के युग में संचार के साधनों में वृद्धि | अपने प्राचीन गौरव की रक्षा कर सकेंगे। आज पुनिया का हुई है और यह भी आवश्यक है कि हमें इन संचार साधनों का आदर्श, आनन्द की चारित्र निष्ठा, भामाशाह का त्याग, तेजपाल उपयोग भी करना चाहिए, किन्तु इन संचार के साधनों के माध्यम और वस्तुपाल की धर्मप्रभावना, सभी मात्र इतिहास की वस्तु से जीवन-मूल्यों और आदर्शों का प्रसारण होना चाहिए, न कि बन गये हैं। तारण स्वामी, लोकाशाह, बनारसीदास आदि के वैयक्तिक अहम का पोषण। आज यह स्पष्ट है कि हमारी रुचि | धर्मक्रान्ति के शंखनाद की ध्वनि उन आदर्शों और मूल्यों की स्थापना में उतनी नहीं होती है, हमारी दुर्दशा का कारण है, हम कब सजग और सावधान होंगे? जितनी अपने अहम् के सम्पोषण के लिए अपना नाम व फोटो | यह चिन्तनीय है। छपा हुआ देखने में होती है। इस युग में, मैं देख रहा हूँ कि साधनाप्रिय साधु और श्रावक तो कहीं ओझल हो गये हैं। यदि 35, ओसवाल सेरी, उनका जीवन और चारित्रिक मूल्य आगे आएँ तो, उनसे हमारे शाजापुर 462001(म.प्र.) जुलाई 2004 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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