Book Title: Jinabhashita 2004 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 23
________________ जीवन में प्रयोगात्मक अनुसरण करने की पहल कर अपनी "कर्म को जानने से धर्म नहीं होता। मंद कषाय से कर्म के कथनी और करनी में एकात्मता सिद्ध करनी चाहिए थी। किन्तु लक्ष्य से जो ज्ञान हो वह भी मिथ्या श्रुतज्ञान है।" वे सब आज भी प. पू.आचार्य श्री के विचार व्यवहार से उतने "इससे क्रमशः विकार बढ़कर वह ज्ञान अत्यंत हीन होकर ही दूर खड़े है जितने पहले थे। निगोद दशा होगी" भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित महाबंध भाग 1 के प्रथम इस प्रकार आचार्य श्री को कानजी स्वामी के अनुयायियों संस्करण की प्रस्तावना के पृष्ठ 14 पर पू. आचार्य श्री का एक द्वारा अज्ञानी, मिथ्याश्रत ज्ञानी, निगोदगामी, अनात्मार्थी आदि उपदेश प्रकाशित हुआ है "पहले समयसार का नहीं महाबंध कहा गया है। का ज्ञान चाहिए। पहले सोचो हम दुःख में क्यों पड़े हैं? क्यों मायाचार से प्रेरित श्री भारिल्ल जी का यह आचरण कि एक नीचे हैं? गुरुमुख से प्रथम श्रावकाचार का अध्ययन करो। पश्चात् पात ओर वे या उनके साथी पू. आचार्य श्री की अत्यन्त हीन शब्दों में या आत्म विषयक शास्त्र तथा अन्य शास्त्रों का अभ्यास करो। निंदा करते हैं और दूसरी ओर वे उनकी प्रशंसा करते हुए उनके तीर्थंकर भगवान् से भी प्रश्न कर्ता गणधर ने साठ हजार प्रश्नों में। विचार व्यवहार का जीवन में अनुसरण करने की प्रेरणा देते हैं, अंतिम प्रश्न आत्मा के सम्बन्ध में पूछा था। आत्मा की चर्चा क्या धर्म क्षेत्र में राजनीति का यह एक कुटिल खेल नहीं है, बालक्रीड़ा के कन्दुक के सदर्श समझना उचित नहीं है। "कोरा किसी भी निष्पक्ष व्यक्ति को ऐसे विरोधाभासी आचरण को उपदेश धोबी के समान है" आचार्य श्री के उक्त कथन पर तीव्र देखकर श्री भारिल्ल जी के इस लेख में एक धोखे भरी राजनीति कड़ी प्रतिक्रिया हुई जो "आत्म धर्म" के दिसम्बर, 1997 के की गंध आए बिना नहीं रह सकती। काश विद्वत् प्रवर श्री अंक में "व्यवहार मुढ जीवन की मिथ्या मान्यता" शीषर्क से भारिल्ल जी छलपूर्ण राजनीति से ऊपर उठकर शुद्ध हृदय से प्रकाशित हुई। अपने समर्थकों को उक्त लेख के उपदेशात्मक अंश को गंभीरता वहाँ लिखा है "व्यवहार मूढ जीव कहता है"पहले समयसार । से जीवन में अपनाने की प्रेरणा दे सकें तो निश्चय ही उनके नहीं पहले महाबंध चाहिए" वह आत्मार्थी कैसे हो सकता है? लिखे अनसार यह"एक नये यग का आरंभ" हो सकेगा अन्यथा अन्यत्र भेद विज्ञानसार पुस्तक पृष्ठ 156, 133, 146 में निम्न तो यही माना जायेगा कि आदरणीय भारिल्ल जी का लेख मात्र वाक्य देखें। एक राजनीतिक खेल है। "कर्म का ज्ञान मोक्ष का कारण नहीं है परन्तु आत्म लुहाड़िया सदन, स्वभाव का ज्ञान मोक्ष का कारण है........।" मदनगंज किशनगढ़ "अज्ञानी कहते हैं पहले आत्मा का नहीं किन्तु कर्म का 305801 जिला-अजमेर (राज.) ज्ञान करना चाहिए।" मुक्तक अनासक्ति का अवदान योगेन्द्र दिवाकर ध्यान में रहते भोग ही भोग, इसीलिये हम नहीं निरोग। किन्तु सत्य-पुरुषार्थ करें तो, महापुरुष बनने का योग। मनोज जैन 'मधुर' सोय चेतन को हर पल जगाते रहो, सप्त व्यसनों को मन से भगाते रहो। किस घड़ी काल आकर दबोचे हमें, मंत्र नवकार का गुनगुनाते रहो।। अनासक्ति का अवदान, महान, ज्यों किरणे देता दिनमान। मुक्तिगामी पूज्य स्वतंत्र, शाश्वत शिव होता भगवान् ॥ दिवा निकेतन, पुष्पराज कालोनी, प्रथम पंक्ति, सतना (म.प्र.) | 5/13 इन्द्रा कालोनी बाग उमराव दुल्हा भोपाल -10 जुलाई 2004 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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