Book Title: Jinabhashita 2004 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 7
________________ लोग बलि के पाप से बचने हेतु कभी भी नारियल को देवता के सामने नहीं काटते और न ही समर्पित करते, परन्तु वापस घर ले जाते थे । 1 'मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामिति' बोलकर श्रीफल पूरापूरा ही चढ़ाया जाता है, जिससे कि पूरा-पूरा ही मोक्ष मिल सके। अगर कोई नारियल को फोड़कर आधा चढ़ाये तो आधा ही मोक्ष मिलेगा, कहीं बीच में ही लटक जाएगा। इतना ही नहीं नारियल फोड़कर चढ़ाने से बलिप्रथा का भी समर्थन होता है। तथा आधा घर ले जाने से निर्माल्य खाने का भी दोष लगता है इसके बाद सूखा हुआ वह फल बजाने से खट-खट बजता है। मानो यह उपदेश देता है कि निर्ग्रन्थ अवस्था प्राप्त होने पर साधु को भेद - विज्ञान की प्राप्ति होती है, शरीर और आत्मा भिन्नभिन्न अनुभव में आती है। इसलिये तो उन्हें सभी परीषह और उपसर्ग को सहज रूप से समतापूर्वक सहन करने में आ जाते हैं। इसके बाद वह फल ऊपर से इतना कठोर और देखने में मटमैला होता है कि लोगों को अच्छा नहीं लगता। लेकिन अंदर स्वच्छ सफेद और मुलायम होता है। वह कहता है कि मुझे जो तुम ऊपर से देख रहे हो, वही मात्र मेरा वास्तविक स्वरूप नहीं है। वास्तविक स्वरूप तो अंदर देखने पर ही मालूम पड़ता है, इसलिये तो हमारा बाहरी नाम नारियल अर्थात् बाहर से मैं नोरियल हूँ अन्दर में ओरिजनल हूँ, इसलिये मेरा नारियल नाम भी सार्थक है। इसी तरह साधु लोग ऊपर से किसी पाप, पाखण्ड, मिथ्यात्व, रुढ़िवाद आदि का खण्डन करते हुए कठोर से प्रतीत होते हैं। अस्नान व्रत होने से कभी उनका रंग अच्छा सा प्रतीत न हो, मैला -कुचैला सा लगे, तो अंतर में वे भावों से बहुत नरम सब के हितकर्ता और स्वभाव से बहुत कोमल होते हैं। इसके बाद जब उस नारियल की खोपड़ी को तोड़ा जाता है, तब अन्दर गोल भेला के दर्शन होते हैं। उसी तरह जब साधु अपने शुक्ल ध्यान से मोहनीय कर्म का नाश करते हैं, तब परम वीतरागी कहलाते हैं। नारियल की खोपड़ी की कठोरता बतलाती है कि मोहनीय कर्म बड़ा कठोर होता है और जिसके जाने पर अन्य कर्मों का जाना बहुत सहज हो जाता है। इसके बाद जैसे भेले के ऊपर का छिलका धीरे-धीरे निकाला जाता है, तब धवल भेला निकलता है। वैसे ही साधु लोग क्रमशः ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का क्षय करते हैं, तब कैवल्य की प्राप्ति करके अर्हन्त पद पाते हैं। वह अर्हन्त अवस्था एक धवल भे के समान समझना चाहिए। अभी नारियल पूर्ण शुद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं हुआ है, अभी उसमें और कुछ अशुद्धता बाकी है, लेकिन जब उस भेले से तेल निकाला जाता है तब वह पूर्ण शुद्ध अवस्था को प्राप्त करता है। इसी तरह केवलज्ञानी की अर्हन्त Jain Education International अवस्था पूर्ण शुद्ध नहीं मानी जाती, क्योंकि अभी अघातिया कर्म उनकी आत्मा में बैठे रहते हैं। जब श्रेष्ठ शुक्लध्यान द्वारा अघातिया कर्मों का भी नाश कर दिया जाता , तभी तेल के समान पूर्ण शुद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं। अब देखो वह तेल अगर एक बर्तन में डाला जाये, तब वह तेल नीचे दब जायेगा क्या? अथवा ऊपर आयेगा? ठीक है ऊपर आयेगा । कहाँ तक ऊपर आयेगा ? जहाँ तक दूध है, उसके ऊपर तो नहीं जायेगा । उसे भी सहारा, साधन चाहिए। इसी तरह अघातिया कर्म दूर होने के उपरान्त वे सिद्धपरमेष्ठी कहाँ जाते हैं ? ऊपर की ओर जाते हैं । कहाँ रुक जाते हैं? सिद्ध शिला में रुक जाते हैं। उसके ऊपर क्यों नहीं जाते? उनके पास तो अनंत शक्ति है, फिर और भी ऊपर जाना चाहिए। अनंत आकाश पड़ा है, जाते रहना चाहिए, उनको रोकने वाला कौन? तो आप बोलेंगे " धर्मास्तिकायाभावात् " धर्मास्तिकाय का अभाव है, इसलिये ऊपर नहीं जा पाते, तो मैं पूछता हूँ कि एक अनंत शक्ति के धारक सिद्ध परमात्मा को भी परद्रव्य के आलंबन की आवश्यकता पड़ी। मतलब बिना निमित्त के उनका काम नहीं चल सकता। धर्मास्तिकाय निमित्त के बिना वे ऊपर नहीं जा पाये, तो हम तुम लोग निमित्त की उपेक्षा करें तो हमारा जीवन कैसे चलेगा? सम्यग्दर्शन से लेकर मोक्ष तक J निमित्त भी उपादान के साथ काम करता रहता है, अत: अनेकान्त को समझने वाले लोगों को कभी निमित्त को छोड़ने की बात नहीं करना चाहिए। आप लोगों के उपादान में कुछ तो हमारे चातुर्मासरूपी निमित्त की आवश्यकता रही होगी, इसीलिये तो आप लोगों ने नारियल चढ़ाकर चातुर्मास का निवेदन किया । यह नारियल श्री फल भी कहलाता है, श्री का अर्थ लक्ष्मी होता हैं, जो मोक्ष लक्ष्मी प्रदान करे, उसे श्रीफल कहते हैं। वैसे लक्ष्मी तीन प्रकार की होती है पहली अन्तरंग लक्ष्मी अर्थात् अनंत चतुष्टय, दूसरी है बहिरंग लक्ष्मी-समवशरण आदि विभूति और तीसरी है मोक्ष लक्ष्मी । इन तीनों की पूजा, चाहना करनी चाहिए, अन्य किसी सरागी की नहीं। नारियल जब चढ़ाते हैं, तब उसकी चोटी ऊपर की ओर रखते हैं। इससे वह मुक्ति जाने की भावना प्रगट करता है । इसलिए उसका श्रीफल भी नाम सार्थक है। इस प्रकार हम लोगों ने एक नारयिल या श्रीफल के उदाहरण से मोक्षमार्ग को समझ लिया । यह शार्ट एण्ड स्वीट उदाहरण देने मात्र से आपका काम चल जायेगा। अब चातुर्मास में मौन बैठ सकते लेकिन आप लोगों के संकेत से मालूम पड़ा कि आप बहुत कुछ सुनना चाहते हैं। मैं रोज सुबह-शाम सुना सकता हूँ, आपके बंधन में बंधकर नहीं अपने व्रतों के बंधन को मुख्यता देते हुए शास्त्र सुनाऊँगा । इस श्रीफल की ही यात्रा को विस्तृत करके सुनाऊँगा, जिससे आपको शीघ्रतिशीघ्र मोक्ष फल की प्राप्ति हो । जुलाई 2004 जिनभाषित For Private & Personal Use Only 5 www.jainelibrary.org

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