Book Title: Jinabhashita 2004 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ सम्पादकीय बहिष्कार समाधान का मार्ग नहीं है 8 जुलाई 2004 के 'जैन गजट' में माननीय पं. नरेन्द्रप्रकाश जी जैन का सम्पादकीय लेख 'समाधान की दिशा में एक अपील' पढ़ा। उन्होंने लिखा है कि जैन मित्र के 3 जून 2004 के अंक में किन्हीं आनन्दवर्धन जैन द्वारा प्रेषित एक समाचार 'अनिवार्य खुला निमन्त्रण पत्र' शीर्षक से छपा है, जिसमें (भगवान् महावीर की जन्मभूमि के विषय में भिन्न विचार रखने के (कारण) पूजनीया आर्यिका ज्ञानमती जी और उनकी टीम का बहिष्कार करने का इरादा व्यक्त किया गया है। पढ़कर दुःख हुआ । निन्दा और बहिष्कार राजनीतिक हथकण्डे हैं। ये दूसरों की छवि को विकृत कर स्वयं को उज्ज्वल, सही और श्रेष्ठ सिद्ध करते हुए अपनी कुत्सित प्रवृत्तियों को संरक्षण देने के लिए अपनाये जाते हैं। ये समाज में कटुता का जहर फैलाकर उसे विघटित करने वाले, नये पन्थों को जन्म दिलाने वाले और जैनों को अजैनों की गोद में ढकेलने वाले कुत्सित कारनामे हैं । निन्दा और बहिष्कार की भाषा अभद्र भाषा है, अप्रशस्तभाषा है, द्वेषभाषा है, जैनभाषा नहीं है। यह सत्याणुव्रत और सत्यमहाव्रत दोनों के विरुद्ध है । यह उच्चगोत्र के आस्रव की भी विरोधिनी है। यदि कहीं आगम विरुद्ध मान्यताएँ और प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं, तो उनका भद्रतापूर्वक शालीन भाषा में विरोध किया जाना चाहिए। क्योंकि जैसे अन्याय और अत्याचार का विरोध न करने से उन्हें बढ़ावा मिलता है, वैसे ही आगमविरुद्ध मान्यताओं, प्रवृत्तियों और शिथिलाचार का विरोध न करने से उनके पल्लवित और पुष्पित होने का मार्ग प्रशस्त होता है। विरोध न करना उनकी अनुमोदना करना है। क्योंकि विरोध न करने से स्वेच्छाचारी सोचता है कि समाज को उसकी आगमविरुद्ध मान्यताओं और प्रवृत्तियों पर कोई आपत्ति नहीं है, उन्हें उसने स्वीकार कर लिया है। यह सोचकर वह लोकभय से मुक्त हो जाता है, जिसके फलस्वरूप उसके स्वेच्छाचार में वृद्धि होती जाती है और स्वेच्छाचारियों की संख्या बढ़ती है। ताजा उदाहरण के लिये 'संस्कार सागर' (जुलाई 2004) में प्रकाशित लेख ' यात्रा चाँदी से चरस तक की' पठनीय है। ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है कि जब भी धर्म का नाश होने लगे, सत्प्रवृत्तियों के ध्वस्त होने की नौबत आ जाए और सत्सिद्धान्त संकट में पड़ जायें, तब उनकी रक्षा के लिए ज्ञानियों को स्वयं ही मुँह खोलना चाहिए धर्मनाशे क्रियाध्वंसे सुसिद्धान्तार्थविप्लवे । अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने ॥ 9/15 | इस प्रकार आगमविरुद्ध मान्यताओं और प्रवृत्तियों का विरोध आगमोक्त कर्त्तव्य है । परन्तु यह आगमोक्तमार्ग से ही सम्पन्न किया जाना चाहिए। आगमोक्त मार्ग एक ही है : आगमविरुद्ध मान्यताओं और प्रवृत्तियों को भद्रतापूर्वक दोषी व्यक्ति की दृष्टि लाना और आगमप्रमाण एवं युक्तियों के द्वारा समझाकर उनके परित्याग की प्रेरणा देना। अगर दोषी व्यक्ति पर इसका असर नहीं पड़ता, तो अन्तिम उपाय है उसके साथ असहयोग करना, उससे दूरी बना लेना और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करना । इससे सामाजिक अनुमोदना न मिलने पर दोषी व्यक्ति के अलग-थलग पड़ जाने से उसके मन पर असर पड़ सकता है और चिन्तन-मनन के द्वारा उसकी आगम विरुद्ध मान्यताओं और प्रवृत्तियों में परिवर्तन संभव है " असंजदं ण वन्दे वच्छविहीणो वि सोण वंदिज्ज " यह सूक्ति आचार्य कुन्दकुन्द ने इस अन्तिम उपाय के रूप में ही कही होगी। बस, आगमोक्त मार्ग यहीं समाप्त हो जाता है। इसके आगे का मार्ग हृदयपरिर्वतन का नहीं हृदयविदारण का है । अत: वह अनागमोक्त है। जिसे हम दोषी मान रहे हैं, उसकी सार्वजनिक रूप से निन्दा और बहिष्कार करके अपनी बात मनवाना अलोकतांत्रिक और आतंकवादी तरीका है। यह उसे और कट्टर बना देता है। अतः यह फूट का मार्ग है। इससे जैन समाज जैतरों में बदनाम भी होता है। इससे परहेज किया जाना चाहिए। महावीर जन्मभूमि पर मतभेद निश्चयाभास या शिथिलाचार जैसा गम्भीर मसला नहीं है। अतः इस विषय में बहिष्कार जैसा कृत्य तो सर्वथा अवांछनीय है। जैनगजट के मान्य सम्पादक ने विनम्र अनुरोध किया है कि "कुण्डलपुर या वैशाली को लेकर कोई पक्ष अपने परिणामों को कलुषित न होने दे। दोनों ही स्थानों का अपना महत्त्व है, एक का पारम्परिक तो दूसरे का ऐतिहासिक । यदि दोनों क्षेत्रों का विकास होता है, तो इससे धर्म की कोई हानि होनेवाली नहीं है। जिसका मन जहाँ भी रम सकेगा और जहाँ भी उसे निराकुलता अनुभव हो सकेगा, उसी स्थान से उसके कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा । आत्मकल्याण में स्थान बाधक नहीं, कषाय बाधक है । " विद्वद्वर नरेन्द्र प्रकाश जी का यह अनुरोध गंभीरता से विचारणीय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only रतनचन्द्र जैन जुलाई 2004 जिनभाषित 3 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36