Book Title: Jinabhashita 2004 07 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 6
________________ नारियल में मोक्ष मार्ग मुनि श्री आर्जव सागर जी प्रातः स्मरणीय आचार्य गुरुवर श्री 108 विद्यासागर जी महाराज बनकर फलित होता है। जब उसे तोड़ते हैं तो वह भी मीठाके सुशिष्य मुनि श्री 108 आर्जव सागर जी महाराज, क्षुल्लक श्री मीठा पानी देता है, जो ग्लुकोज का काम करता है,शक्तिवर्द्धक अर्पण सागर जी एवं संघस्थ ब्र.शान्ति कुमार जी के पावन | होता है। कभी कुछ खाने को भी मिलता है। उस वृक्ष से बड़े वर्षायोग का सौभाग्य भोपाल नगर के टीन शेड.टी.टी.नगर जैन | परोपकार का उपदेश हमें प्राप्त होता है।"परस्परोपग्रहो जीवानाम" समाज को प्राप्त हुआ।वर्षायोग कलश स्थापना के मंगल अवसर | इस सूत्र को चरितार्थ करता है। किसी ने पानी दिया था, उसने 1जुलाई 2004 को मुनिश्री ने अपने मार्मिक उदबोधन में कहा- भी उसे पानी दिया और जिन्दगी भर देता रहता है, कोई पत्थर जल की वर्षा के साथ धर्म की वर्षा का योग अब आया है। भी मारे तो फल ही देता है। कहा भी गया है - आज वर्षायोग की स्थापना का शुभ अवसर है। वर्षायोग साधुओं परोपकाराय फलन्ति वक्षा:परोपकारायवहन्ति नद्यः। की आत्मसाधना का एक मंगल अवसर होता है। वर्षाकाल में परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकाराय सुतप्रसूतिः॥ जब धरती जीवराशि से आकुलित हो जाती है,तब साधु लोग जिस प्रकार परोपकार के लिये वृक्ष फल देते हैं, परोपकार अहिंसा, तप आदि की साधना के निमित्त वर्षायोग धारण करते के लिये नदियाँ बहती हैं परोपकार के लिये गाय दूध देती हैं, हैं, जिसमें मौन, ध्यान आदि की विशेष साधना के साथ अनेक इसी तरह परोपकार के लिये माँ बेटे को जन्म देती है। इस प्रकार शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन का कार्य करते हैं और भव्य परोपकार करना प्रत्येक मानव का धर्म है। यह हमें उपदेश उस लोग उसका अच्छा लाभ उठाते हैं। अपनी चर्या के प्रति सतर्क | नारियल के वृक्ष से मिला। यह तो हुई नारियल के अपने वृक्ष रहना, ये भगवान् ने बतलाया है। एक बार गणधर परमेष्ठी ने | रूपी परिवार की बात। अब कहता हूँ कि जब वह नारियल सूख भगवान् से प्रश्न किया - करके स्वतः ही वृक्ष को छोड़कर नीचे आता है, उससे यह कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये। | उपदेश मिलता है कि जो भव्य अपने परिवार से मोह, लगाव का कधं भंजेज भासेज कधं पावं ण बज्झदि॥ । सम्बन्ध तोड़ देता है वह सद्गुरु के चरणों में आ जाता है। इसके हे भगवन् ! कैसा आचरण करें, कैसे ठहरें, कैसे बैठें, कैसे | बाद जब उस फल को उपयोग में लाना हो, तो उसके ऊपर का सोवें, कैसे भोजन करें एवं किस प्रकार बोलें कि जिससे पाप से | सूखा पीला कवच (छिलका) निकाला जाता है, जिससे समझें नहीं बंधे। तब इसके उत्तर में भगवान ने कहा कि मोक्षमार्ग में गुरु के समीप आकर भव्य दीक्षा धारण करने जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सये। । हेतु पहले वस्त्रों का मोचन करता है। इसके बाद जैसे नारियल जदं भुंजेज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झइ॥ के जटा उखाड़े जाते हैं, वैसे ही भव्य केशलोंच करता है। जटायत्नपूर्वक गमन करें, यत्नपूर्वक खड़े हों, यत्नपूर्वक बैठे, जूट निकल जाने के बाद जिस प्रकार उस फल में तीन चिह्नों का यत्नपूर्वक सोवें, यत्नपूर्वक आहार करें और यत्नपूर्वक बोलें, दर्शन होता है, उसी तरह पूर्ण परिग्रहरहित और केशलोंच के इस तरह करने से पाप का बन्ध नहीं होगा। बाद साधु में रत्नत्रय के दर्शन होते हैं। उन तीन चिह्नों को ऐसा भगवान् ने उपदेश दिया, जिसका अपने जीवन में | सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का प्रतीक मानना चाहिये। अमल करते हुए साधु लोग समितियों के माध्यम से अपनी चर्या | ये तीन दिखते हैं तो क्या हैं? आँखे हैं? आँखें नहीं बोलना को निर्मल रखते हए योग्य स्थानों में वर्षायोग की स्थापना करते | चाहिए। किसी ने कहा था जो अजैन लोग किसी रागी देवीहैं । मुनियों का जीवन मोक्षमार्ग से जुड़ा हुआ होता है और भी | देवताओं के सामने पशुओं की बलि देते थे और जब उन्हें किसी कोई भव्य अगर मोक्षमार्ग पर चलने को उत्सुक हो, तो उसे भी | समय पशु नहीं मिलते थे, तब वे नारियल के जटा उखाड़कर राह दिखाते हैं । इसी अवसर पर मुझे एक उदाहरण याद आया | उसमें दिखने वाले तीन चिह्नों में से दो को दो आँखें एवं एक जिसके द्वारा आप लोग संक्षेप में सम्पूर्ण मोक्षमार्ग को समझ कुम्भ बनाकर एक पशु की बलि रूप में उसे उन देवी-देवताओं सकते हैं। कोई एक व्यक्ति भूमि को साफ-सुथरा करके पानी के सामने शस्त्र से काट देते थे और आधा नारियल वहाँ चढ़ाकर का सिंचन करके एक बीज बोता है, खाद-पानी और बाढ़ आधा घर ले जाते थे। इस प्रकार उस परम्परा को रूढिरूप से लगाकर उसको सुरक्षित रखता है, एक दिन वह पौधे से पेड़ दक्षिण के लोग अपनाते रहे, लेकिन इसका रहस्य समझने वाले 4 जुलाई 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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