Book Title: Jinabhashita 2004 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ प्रथम खण्ड समृद्ध बनाया गया है, जबकि द्वितीय खण्ड में वह तनिक भी आवश्यक नहीं माना गया हैं, फलतः प्रकृति की कोई लघु दृश्यावली दृष्टि में नहीं आती, किन्तु खण्ड तीन में रचनाकर का चिंतन पुनः प्रकृति का पावन स्पर्श करता है, जब वे बादलों से बरसे हुए पानी को धरती पर गिरता हुआ देखते हैं और फिर वही पानी विशाल राशि के साथ धरती का सब कुछ बहाता हुआ अपने साथ समुद्र में ले जाता वे उस दृश्य को शब्द देते हैं'बसुधा की सारी सुधा / सागर में जा एकत्र होती' इन पंक्तियों में वे धरती पर पानी के साथ बहे हुए अनेक पदार्थों को 'सुधा' का सम्बोधन देकर अपने कवि का स्तर बहुत ऊँचा करने में भी साफल्य पा सके हैं। (पृ. १९) धरती की सम्पदा को आदर देने के निमित्त ही उन्होंने 'सुधा' शब्द का श्रेष्ठ उपयोग किया है। यहाँ वर्तमान के विख्यात कविगण काफी पीछे रह जाते हैं जिनने लिखा है कि धरती सोना और हीरा-मोती उगलती है। अब मैं जो उदाहरण देने जा रहा हूँ वह कवि की सुकुमार भावनाओं का सुंदर परिचय तो देता ही है, उसे प्रकृति की घटनाओं का ज्ञाता भी सिद्ध करता है। आकाश में तीन बदलियों को उड़ते देख वे किस कदर प्रकृति में समाहित हो जाते हैं, यह समझने विचारने की बात है- गजगामिनी भ्रम भामिनी / दुबली पतली कटि वाली/गगन की गली में अबला सी/तीन बदली निकल पड़ी हैं। दधि धवला साड़ी पहने / पहली वाली बदली वह / ऊपर से/साधनारत साधवी सी लगती है / रति पति प्रतिकूला मतिवाली/पति मति अनुकूला गति वाली। इतनी दिव्य है वह उनकी प्रथम बदली। प्रथम के पीछे-पीछे चल (उड़ रही दूसरी बदली, जो मध्य में हैं, का वर्णन पृथक है 'बिजली बदली ने/पलाश की हँसी (जै) सी साड़ी पहनी / गुलाब की आभा फीकी पड़ती जिससे/लाल पगतली वाली, लाली रची/ पद्धमिनी की शोभा सकुचाती है जिससे ।' बदलियाँ बदलियाँ न हुई, तीन अल्हड़ सहेलियाँ हो गई हैं यहाँ, जिनके श्रंगार और छवि पृथक होते हुए भी एक साथ चल रही हैं। तीसरी बदली का प्रकृति चित्रण भी कम नहीं है, जब कवि लिखते हैं- नकली नहीं, असली/सुवर्ण की साड़ी पहन रखी है। पिछली बदली ने बदलियों का वर्णन कर तरूणियों के रूप लावण्य को उपस्थित करता हुआ कवि अपनी उस दृष्टि का परिचय व प्रभाव यहाँ पूर्ण बारीकी से करा देता है, जो प्रकृति के दृश्य देखने में अतिरिक्त क्षमतायें धारण किये हुए हैं (पृ. १९९२०० ) इस पृष्ठ पर कवि ने सूर्य और धूप का नूतन रिश्ता तय कर दिया है, वे प्रभा (धूप) को प्रभाकर की प्रेयसि पहले ही मान चुके हैं, अब वे उसे पत्नी मानकर कलम चलाते हैं- - 'प्रभाकर की प्रभा को प्रभावित करने का/ बाद में कवि प्रभाकर और प्रभा के रिश्ते को नाम देता हुआ लिखता भी है- 'अपनी पत्नी को 10 मार्च 2004 जिनभाषित Jain Education International - ... प्रभावित देख कर प्रभाकर का प्रवचन प्रारंभ हुआ। प्रकृति चित्रण की ये कल्पनायें सहज नहीं हैं, इन्हें कागज पर उतारने में रचनाकार को कल्पना के हिमालय जितनी ऊँचाई स्पर्श करनी पड़ी होगी। (पृष्ठ २०० ) ' पूरे ग्रन्थ में एक विचित्र संदर्भ भी देखने मिला है, जब कलमकार का एक पात्र 'बादल' विशाल समुद्र का पक्ष लेते हुए सूरज को डांट पिलाता है। चूंकि कलमकार का आशय ही बादल और सूरज की बातचीत सुनने-सुनाने का है, इसलिये इस दृश्य को मैं 'प्रकृति चित्रण' में ही समाहित पा रहा हूँ, क्यों कि सूर्य एक प्राकृतिक तत्त्व है, उसका उदय और अस्त प्राकृतिक है, उसका तपना प्राकृतिक है। इसी तरह बादल-दल भी प्राकृतिक है, कवि ने सीधा-सीधा सूर्य को नहीं डांटा, कथा के एक पात्र ने उस पर कोप उतारा है, जब बादल नक्षत्रों के मध्य अपने पांडित्य का डंका बजाते हुए उनके वरिष्ठ पंडित दिवाकर को आड़े हाथ लेता है- 'अरे खर प्रभाकर, सुन/ भले ही गगन मणि कहलाता है तू/सौर मंडल देवता-गृह / ग्रह-गणों में अग्र / तुझमें व्यग्रता की सीमा दिखती है/अरे उग्र शिरोमणि/तेरा विग्रह ... यानी / देह धारण करना वृथा है/ कारण/कहाँ है तेरे पास विश्राम गृह ? / तभी तो दिन भर दीन हीन सा/ दर-दर भटकता रहता है। फिर भी क्या समझकर साहस करता है/ सागर के साथ विग्रह-संघर्ष हेतु ?' बादल का क्रोधोत्पन्न वार्तालाप जारी रहता है, बीच में वह समुद्र को समझाने के स्वर धारण करता है और कहता है'अरे अब तो / सागर का पक्ष ग्रहण कर ले/कर ले अनुग्रह अपने पर/ और सुख शांति यश का संग्रह कर/ अवसर है / अवसर से काम ले, अब तो छोड़ दे उल्टी धुन / अन्यथा 'ग्रहण' की व्यवस्था अविलंब होगी । ' - कलमकार चतुर चितेरे हैं, वे जानते हैं कि सूरज को क्या दण्ड उपयुक्त हो सकता है। कोई उसे न जला सकता है, न बुझा सकता है। अत: उन्होंने उसके आभामंडल (यश) को कलंकित करने की सजा ठीक मानी। यश कलंकित कैसे हो ? जब उसमें 'ग्रहण' लग जाये । वह लगा भी । प्रकृति का यह चित्रण, हाँ ऐसा चित्रण हरेक कलमकार के लिए सम्भव प्रतीत नहीं होता, यह तो महाकवि आचार्य. विद्यासागर के वश की ही बात है । (पृ. २३१) रचनाकार ने किसी भी स्थल पर प्रकृति सापेक्ष - सत्य को अनदेखा नहीं किया, परन्तु देखना वहाँ ही चाहा है, जहाँ जरूरी लगा है। इसी तरह खण्ड चार में मात्र दो जगहों पर उन्हें प्रकृति का चित्रण आवश्यक लगा है, प्रथम वहाँ, जहाँ, संध्यावंदन करने के उपरांत कुम्भकार कक्ष से बाहर आता है और उसे दृश्य देखने मिलता है- 'प्रभात कालीन सुनहरी धूप दिखी/धरती के गालों पर / ठहर न पा रही थी जो ।' वर्णन करते हुए वे एक वैचित्रय यहाँ भी प्रस्तुत करते हैं अपनी लेखनी से कि शाम के समय भी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36