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क्या एकल विहार का आगम में सर्वथा निषेध है
पं. सुनील जैन 'शास्त्री'
वर्तमान में साधु के एकल विहार पर बहुत चर्चाएँ पत्र-। करने में स्वच्छंद होकर प्रवृत्ति करता है ऐसा मुनि कभी एकाकी पत्रिकाओं में की जा रही हैं। क्या मुनि एकल विहार सर्वथा नहीं विहार न करे। कर सकता?
आचार्य खेद के साथ कहते हैं कि इन गुणों से रहित इसका समाधान यह है कि एकल विहार करने से श्रुतज्ञान | साधु, मेरा शत्रु भी हो, तो भी एकाकी विहार न करे। के संतान की विच्छित्ति, अनवस्था, संयम का नाश, तीर्थ और गुरु उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट है कि श्लोकों में कथित गुणों की आज्ञा का भंग, अपयश, अग्नि-जल-विष रोग सर्पादिक्रूर | का धारी साधु एकल विहार भी कर सकता है। परन्तु इन गुणों से प्राणियों के द्वारा आर्तध्यान से अपनी मृत्यु आदि दोष उत्पन्न होने | रहित साधु यदि एकल विहार करता है तो उपरोक्त संभावनाएँ होने की संभावना रहती है, परन्तु जो साधु उत्कृष्ट चारित्र के धारी व से धर्मनाश या निंदा का कारण हो सकता है। . ज्ञान एवं बल से सहित हों, उनके लिये एकल-विहार की | कुछ विद्वानों का ऐसा कहना है कि तीन उत्तम संहनन स्वीकृति आचार्यों ने दी है। श्री आचार सार अध्याय २, श्लोक | वाले मुनिराज ही एकल विहार कर सकते हैं। वर्तमान में तीन नं. २७-२८ में इस प्रकार कहा है
उत्तम संहनन का अभाव होने से कोई भी साधु एकल विहार नहीं ज्ञानसंहनननस्वांतभावना बलवन्मुनेः।
कर सकता। उन विद्वानों का ऐसा मानना उचित नहीं लगता है। चिरप्रव्रजितस्यैक विहारस्तुमतः श्रुते॥२७॥ क्योंकि यदि यही विचार उचित था तो फिर आचार्यों को स्पष्ट एतद्गुणगणापेतः स्वेच्छाचाररत: पुमान्।
उल्लेख करना चाहिए था कि पंचमकाल में हीन संहनन होने से यस्तस्यैकाकिता मा भून्मम जातुरिपोरपि॥२८॥ एकल विहार सर्वथा निषिद्ध है। परन्तु किसी भी आचार्य का ऐसा अर्थ - (टीका पू. आर्यिका सुपार्श्वमति जी द्वारा) मत नहीं मिलता। श्री मूलाचारकार ने भी एकल विहारी साधु की
बहुत काल के दीक्षित, ज्ञान, संहनन, स्वांतभावना से | परिभाषाएँ दी हैं, तथा बीसवीं शताब्दी के महान् आचार्यों ने बलशाली मुनि के एकाकी विहार करना शास्त्रों में माना है। चिरकाल तक एकल विहार किया है, अतः उपरोक्त मान्यता परन्तु जो इन गुणों के समूह से रहित स्वेच्छाचारी में रत पुरुष हैं | उचित नहीं। उस मेरे शत्रु के भी एकाकी विहार कभी भी नहीं हो।
इस प्रश्नोत्तर के द्वारा एकल विहार का समर्थन नहीं किया भावार्थ : जो ज्ञानबल, संहननबल, मनोबल और शुभ जा रहा है, पर पूर्णतया निषेध भी आगम में नहीं है, इस बात का भावना से युक्त है वह एकाकी विहार कर सकता है। ज्ञानबल, | प्रतिपादन किया है। यदि हम बीसवीं शताब्दी के उत्कृष्ट चारित्र विशिष्ट, आध्यात्मिक ज्ञान का धारी हो । संहननबल, उत्कृष्ट संहनन | के धनी मुनिराजों के जीवन-चरित्र पर दृष्टि डालें तो बहुत से का धारी हो, अर्थात् भूख, प्यास सहन करने की शाक्ति वाला हो, | मुनिराजों ने वर्षों तक अकेले ही विहार किया था। फिर भी उनके आत्मानुभूति से अपने मन को वश में करने वाला हो, चिरकाल का | चारित्र में कभी शिथिलाचार दृष्टिगोचर नहीं हुआ। अत: शिथिलाचार दीक्षित हो, ऐसा विशिष्ट मुनि एकाकी विहार करने वाला हो | पूर्णतया विरोध योग्य मानना चाहिए, एकल विहार नहीं। सकता है। परन्तु जिसमें यह गुण नहीं है, जो स्वेच्छाचार में रत
९६२, सेक्टर-७,
आवास विकास कॉलोनी रहता है अर्थात् सोने, बैठने, मलमूत्र के त्याग में वस्तु के ग्रहण |
आगरा (उ.प्र.) फोन ०५६२-२२७७०९२
जिनभाषित के लिए प्राप्त दान राशि श्रीमान् प्रेमचन्द्र जैन 'तेलवाले', मेरठ (उ.प्र.) के प्रपौत्र चि. उत्कर्ष जैन (सुपुत्र श्री राकेश जैन) एवं सौ. शलिका जैन के विवाहोपलक्ष में 500 रुपये प्राप्त। श्री ताराचन्द पाटनी 95, मेन सेक्टर, भीलवाड़ा (राजस्थान) द्वारा 100 रुपये प्राप्त।
12 मार्च 2004 जिनभाषित
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