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वे, आगे, प्रभात का परिचय कराने में भी भाषा और । कवि को? उपमा का चमत्कार यहाँ देखने मिलता है, वह हैव्याकरण से परे, मात्र कल्पना के बल पर भारी सफलता पाते हैं, | 'तनूदरा'। अश्लीलता या वासना के स्वर से दूर एक सुंदर उपमा। जब लिखते हैं- 'प्रभात आज का/काली रात्रि की पीठ पर/हलकी | (पृष्ठ ३०) लाल स्याही से/कुछ लिखता सा है कि/यह अंतिम रात है। (पृ. जिस तरह लेखक अपनी रचना से वार्ता कर लेता है उसी १९)'
तरह उनका पात्र शिल्पी माटी से बात-चीत करता है, मगर कवि ___ 'यहाँ प्रभात के द्वारा रात्रि की पीठ पर कुछ लिखना' ने बातचीत को इतनी जीवंतता प्रदान कर दी है कि माटी एक पाठक के आनंद को कई गुणा बढ़ा देता है। हर योग्य और | महानायिका की तरह पाठकों के मस्तिष्क में प्रवेश करती है, जब चरित्रवान नागरिक इन पंक्तियों को पढ़ते हुए क्षण भर को अपने | शिल्पी मिट्टी से पूछता है- सात्विक गालों पर तेरे/घाव से लगते परिवार में उड़ कर आ जाता है, जहाँ उसकी प्रिय पत्नी है। वहाँ | हैं। छेद से लगते हैं।सन्देह सा हो रहा है। भेद जानना चाहता वह नागरिक दो स्थितियों पर सोचता है- वह भी अपनी पत्नी की | हूँ/यदि कोई बाधा न हो तो/बताओगी चारूशीले? (पृष्ठ ३१) पीठ पर इसी तरह कुछ लिखता रहा है विगत् वर्षों में या अभी |
| यहाँ कविता में नहीं, चित्रण का चमत्कार शिल्पी के तक उसने पीठ पर क्यों नहीं लिखा? चित्रण की यह जीवंत | प्रेमभर सम्बोधन में है, जब वह पूछता है- बताओगी - 'चारूशीले।' प्रभावना ही है जो पाठक को सोचने के लिए विवश करती है। | यह 'चारूशीले' शब्द पाठक के मस्तिष्क के तार झनझना देने तक
प्रकृति का ऐसा दुर्लभ चित्रण जो सौ प्रतिशत मौलिकताओं | भीतर कौंधता रहता है और शब्द की गरिमा और सौन्दर्य के बोध से सजा होता है, किसी काव्य (प्रबंध काव्य और महाकाव्य) में | को किसी सुन्दर रूप में तलाशने लग जाता है। अपने ही परिचय अन्यत्र देखने नहीं मिला।
में आये किसी रूप में। कसी बड़ी मील से निर्मित साड़ियाँ तो कहीं न कहीं सूर्य का उदय - एक प्राकृतिक घटना है, नित्य-नित्य है। देखने मिल जाती हैं, परन्तु इधर 'प्रभात' ने 'रात्रि'को, भेंट में जो | सूर्य के कारण धूप का प्रसारण भी प्राकृतिक है। सूर्य और धूप के साड़ी दी है, वह मात्र आचार्यश्री की मिलों में ही बनती है। वे मध्य कोई प्राकृतिक रिश्ता भी है क्या? हम तो नहीं जानते थे, पर दिगम्बर साधु, सवस्त्र कवियों की कल्पना से सैकड़ों मील आगे | कलमकार ने उसे स्पष्ट करने का सद-प्रयास किया है- दिनकर ने चलते मिलते हैं, जब वे कहते हैं- 'उपहार के रूप में/ कोमल | अपनी अंगना को/दिन भर के लिये/भेजा है उपाश्रम की सेवा कोपलों की/हलकी आभा घुली/हरिताभ की साडी/देता है रात | में और वह आश्रम के अंग-अंग को/आँगन को चमती को।' सूती और रेशमी साड़ी से लेकर बनारसी साड़ी तक, | सी.../सेवानिरत..धूप... । कवि ने धूप को सूर्य की अंगना सम्बोधित साड़ियों की शताधिक प्रजातियाँ और प्रकार देखे हैं, पर मूकमाटी | कर एक नये किन्तु अत्यंत मौलिक रिश्ते का उद्घोष किया है जो के महाकवि ने हरिताभ की साड़ी प्रकाश में लाकर अब तक के | अन्यत्र पढ़ने नहीं मिला। (पृष्ठ ७९) इस स्थल पर अंगना के बाद कल्पनाश्रित कवियों के समक्ष नव-आदर्श तो रखा ही है, नूतन | आँगन शब्द का प्रयोग कर भाषायी चमत्कार को बल दिया गया सर्जना को नया फ्रेम (चौखट) भी प्रदान किया है। (पृष्ठ -१९)
सत्य तो यह है कि ऐसे प्रसंगों के चित्र कोई तूलिकाकार | पाठक को एक मिठास और मिली है उक्त पंक्तियों से, अपनी तृलिका से केनवास पर उतार ही नहीं सकता, ये तो वह यह कि किरणों का सहज ही आश्रम में आना एक मायने काव्यलोक में घुमड़ने वाले ऐसे दृश्य हैं जिन्हें पाठक कवि की | रखता है, पर उनका आश्रम में आकर आश्रम का अंग-अंग कृपा से अपनी अनुभूति में ला सकता है, पर ड्राईंग-रूम में सर्व | चूमना- विशेष मायने की संरचना करता है। यही है चित्रण का साधारण के अवलोकनार्थ टांग नहीं सकता।
चमत्कार। इतना ही नहीं मूकमाटी का कवि ओस के कणों में | इसी तरह एक अन्य उदाहरण है, मछली का पानी में उल्लास-उमंग/हास दमंग और होश के दर्शन भी करता है। (पृष्ठ | जन्म लेना प्राकृतिक है, पर आचार्यश्री अपने चिंतन से- उस २१)
प्राकृतिक घटना के भीतर छुपी हुई स्थिति को प्रकट करने में __ भला ऐसी कल्पनाओं के चित्र मृत तूलिका कैसे बना | साफल्य पाते हैं, जब वे लिखते हैं- 'जल में जनम लेकर भी/जलती सकेगी, उसके लिये तो जीवंत विचार ही सहायक हो सकते हैं | रही मछली।' यह मछली जैसे जीवधारियों का सत्य है जिसे कवि के।
आचार्यश्री ही समझ सुन सके हैं। (पृष्ठ ८५) ___ बोरी में भरी हुई माटी कैसी या किस आकार में दिख जल में जले मछली - यह शब्दोपयोग सामान्य नहीं है, सकती है, कौन बताये? परन्त हमारे कवि ने वहाँ भी अपनी | यह प्रतीति और वह अनभति दार्शनिक मधुर-कल्पना को नवाकार देकर सफलता पाई है, वे कहते हैं- महाकवि मात्र कल्पनाशीलता के विमान पर नहीं चलते वे दार्शनिकता 'सावरणा, साभरणा/सज्जा का अनुभव करती/नवविवाहता तनूदरा।' के राजपथ पर भी चले हैं काव्य लिखते समय। बोरी के खूट, छोर तक माटी भर जाने के बाद वे कैसे दिखते हैं। प्रकृति के महत्वपूर्ण चित्रण से लबरेज महाकाव्य का
- मार्च 2004 जिनभाषित 9
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