Book Title: Jinabhashita 2003 03 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 6
________________ PRASADNE n ommu n im रूप तो परम् वीतरागता का साधक है। विशुद्धि में आवरण कैसा? | देता है। पानी एक ही है। जब वह मिट्टी में गिरता है तो उसे कीचड विशुद्धि में तो किसी प्रकार का बाहरी आवरण बाधक है साधक तो बना देता है। जब वह बालू में गिरता है तो उसे सुन्दर कणदा रेत में वह किसी अवस्था में हो नहीं सकता। अन्तरंग को दर्शन तो परिवर्तित कर देता है । वही पानी जब पत्थर पर गिरता है तो उसके यथाजात रूप द्वारा ही हो सकता है, फिर भी यदि इस रूप को देख । रूपरंग को निखार देता है। पानी एक ही है, किन्तु जो जैसा बनना कर किसी को राग का प्रादुर्भाव हों, तो मैं क्या कर सकता हूँ।देखने | चाहता है उसकी वैसी ही सहायता कर देता है। इसी प्रकार नग्न वाला भले ही मेरे रूप को न देखना चाहे तो अपनी आँखों पर पट्टी | रूप वीतरागला को पुष्ट करता है किन्तु यदि कोई उससे राग का पाठ बाँध ले। पानी किसी को कीचड़ थोड़े ही बनाना चाहता है। | ग्रहण करना चाहे, तो ग्रहण करे, इसमें उस नग्न रूप का क्या दोप? जिसकी इच्छा कीचड़ बनने की हई उसकी सहायता अवश्य कर | ये तो दृष्टि का खेल है।" घड़ी डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती'| संकल्पों की नाकाबंदी अशोक शर्मा जिनके कंठ सी दिये युग ने उनकी पीड़ा से घबराकर मेरी इच्छा हर मौसम में चुप चुप रहने की होती है। मेरे प्रतिवादी होने से बहुमत हार नहीं जाता है। संकल्पों की नाकाबंदी मन स्वीकार नहीं पाता है। दिनभर की खींचातानी में समझौतों की पहन बेड़ियाँ सीमित आकाशों से कोई बिल्कुल पार नहीं जाता है। अपने गलत सफर में मुझको रह-रह कर ऐसा लगता है मेरी मंजिल भटकावों की बाहों में हरदम सोती है। टिक-टिक करती घड़ी समय की गतिशीलता का पक्का सबत है जो बारह अंकों और घंटा, मिनिट और सेकेण्ड की सुइयों से सफर पूरा करती है दिन का और कहती है ये घड़ी वाले तुम्हारी गति तो असीम है फिर क्यों नहीं चलते टकटकी लगाकर देखते हो आगे बढ़ने वालों को स्वयं क्यों नहीं बढ़ते? क्या कहासमय आयोगा तो आगे बढ़ेंगे लगता है आप निर्जीव घड़ी से भी गए बीते हैं समय की प्रतीक्षा ही करते हैं समय से कहाँ जीते हैं? घड़ी टिक-टिक करती आगे ही बढ़ती है तुम्हारी तरह टिक कर तो नहीं रहती है। पता- एल-65, न्यू इन्दिरा नगर ए, बुरहानपुर (म.प्र.) नए सिरे से जीवन जीना राही को मंजूर नहीं है मंजिल खुद अपनी दूरी से बिल्कुल दूर नहीं है। निपट अकेली इन साँसों को संभव हो कैसे बहलाना कुंठाग्रस्त हृदय जब मेरा रत्ती भर भी क्रूर नहीं है। बूंद बूंद रिसती गागर की मरूथली में कब्र बनाती अपना कर्ज चुकाती मेरी घायल उमर बहुत रोती है। पीड़ा-आँसू भर आँखों में अन्तर्मन श्रृंगारूँ कैसे कलियों की पलकें नम हैं अधर-अधर गुंजारूँ कैसे। दिशा-दिशा पर जमा हुआ है अंतहीन अँधियारा मन का ऐसे में मैं नीम धुंध का यह विस्तार सँवारूँ कैसे ॥ अँधियारे के श्याम पाश में कसे-कसे ऐसा लगता है अपनी कोई एक विवशता अंतर में पीड़ा बोती है। अभ्युदय निवास, 36-बी, मैत्री विहार, सुपेला भिलाई-490023 (दुर्ग) छ.ग. 4 मार्च 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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