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का भप धारण कर श्रीकृष्ण की शरण में जाने को कहा। तब राजा । अर्थ मुख्य और उपचार के भेद से धर्म दो प्रकार का पद्मनाभ स्त्री का भेष धारण कर द्रोपदी को आगे करके श्रीकृष्ण कहा गया है। अप्रमत्त नामक सप्तम गुणस्थान में मुख्य धर्मध्यान की शरण में पहुँचे श्रीकृष्ण ने उसे अभयदान दिया और सभी । है और नीचे के गुणस्थान में औपचारिक धर्मध्यान है। पाण्डवों के साथ लवण समुद्रा को पार करके द्वारिका वापिस लौट
2. भावसंग्रहकार का कथन इस प्रकार है। आये। इस प्रकार इस पृजा में, भगवान् के ध्यान/स्तवन का फल " मुक्खं धम्मज्झाणं उत्तं तु पमाय विरहिए ठाणे। बताने को यही कथा दी है।
देस विरए पमत्ते उवयारे णेव णायव्वं ।। 37 ।। प्रश्नकर्ता- श्रीमति प्रतिभा जैन, जयपुर
अर्थ- मुख्य धर्मध्यान प्रमत्त्ध्रामक गुणस्थान में कहा गया जिज्ञासा- क्या तीर्थंकर गहस्थ अवस्था में अणुव्रत नहीं | है। देशविरत और प्रमत्तविरत गणस्थान में उपचार से ही जानना धारण करते? जबकि भगवान् पार्श्वनाथ की पूजा में लिखा है 'धरे चाहिये। अणुव्रत महासुखकार'।
3. ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र ने इस प्रकार कहा है। समाधान- तीर्थंकर प्रभु गृहस्थ अवस्था में अणुव्रत धारण
खपुष्पमथाश्रृंगं खरस्यापि प्रतीयते। नहीं करते। सभी तीर्थंकरों के आठ वर्ष की आयु में देशसंयम हो
न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिगुहाश्रमे।।4,17 ॥ जाने का नियम है, जैसा कि महापुराण पर्व 53 में कहा है
अर्थ- आकाश के पुष्प और गधे के सींग नहीं होते हैं। स्वायराद्यष्टवर्षेभ्यः सर्वेषा परतो भवेत।
कदाचित् किसी देश व काल में इनके होने की प्रतीति हो सकती उदिताष्टकषायाणां तीर्थेशा देशसंयमः ।।35॥
है परन्तु गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि होनी तो किसी देश व अर्थ-जिनके प्रत्याव्याख्यानावरण और संज्वलन सम्बन्धी काल में सम्भव नहीं है। क्रोध, मान, लोभ इन आठ कषायों का ही केवल उदय रहता है
4. श्री देवेसन आचार्य ने भावसंग्रह में इस प्रकार कहा है। ऐसे सभी तीर्थंकरों के अपनी आयु के आठ वर्ष के बाद देशसंयम
किं जं सो गिहवंतो वहिरंत्तरगंथ परिमिओ णिच।। हो जाता है।
वहु आरम्भयउत्तो, कह झायह सुद्ध मप्पाणं ।। 384 ।। प्रश्नकर्ता- वीरेन्द्र शास्त्री, कोटा
घरवावारा केई करणीया अस्थि ते ण ते सव्वे। जिज्ञासा- चौथे गुणस्थान में धर्मध्यान होता है या नहीं?
झाणट्ठियस्स पुरओ, चिटुंति णिमीलियचिछस्स ।। 385 ।। समाधान-शास्त्रों में धर्मध्यान के गुणस्थानों का वर्णन दो अर्थ- मुख्य रूप से गृहस्थ के धर्मध्यान न होने का कारण प्रकार से प्राप्त होता है।
यह है कि गृहस्थों के सदा काल बाह्याभ्यन्तर परिग्रह परिमित रूप आचार्य पृज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9 सूत्र 36-37 से रहते हैं तथा आरंभ भी अनेक प्रकार के बहुत होते हैं इसलिए की टीका में श्रेणी के पहले धर्म ध्यान माना है। लिखा है कि वह शुद्धात्मका का ज्ञान कैसे कर सकता है अर्थात् नहीं कर "धर्मध्यानं चतुर्विकल्पमवसेयम् तदविरत देशविरत प्रमतामत श्रेणी सकता ।। 384 ।। गृहस्थों को घर के कितने ही व्यापार करने पड़ते के पहले धर्म ध्यान माना है। लिखा है "धर्म ध्यानां | हैं जब वह गृहस्थ अपने नेत्रों को बंद कर ध्यान करने बैठता है चतुर्विकल्पमवसेयम् तदविरत देशविरात प्रमताप्रमत संयतानाम् | तब उसके सामने घर के करने योग्य सब व्यापार आ जाते हैं। भर्वात..... श्रेण्यारोहणात्पाग्यं श्रेण्यो शुक्लेइति व्याख्याते।" 385।।
अर्थ- धर्मध्यान चार प्रकार का जानना चाहिये। यह उपरोक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि चतुर्थ व पंचम अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव के होता गुणस्थानवर्ती गृहस्थों के उपचार से धर्म ध्यान मानना चाहिये और है। श्रेणी आरोहण से पूर्व धर्मध्यान होता है और दोनों श्रेणियों में वह भी क्वचित् कदाचित् ही मानना उचित है। शुक्लध्यान होता है इसी तरह श्री अकंलक स्वामी ने राजवार्तिक प्रश्नकर्ता- अजय जैन, जबलपुर में तथा ज्ञानार्णव में भी लिखा है। श्री धवला पु. 13 में धर्मध्यान जिज्ञासा- क्या व्यवहार नय का विषय असत्य और की दूसरी व्याख्या मिलती है। जिसके अनुसार धर्मध्यान कपाय | अग्रयोजनीय हैं? रहित जीवों से होता है और शुक्लध्यान कषाय रहित होता है। । समाधान- उपरोक्त विषय में सबसे पहले हमें इस बात अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान से दशवें गुणस्थान तक धर्मध्यान माना है। का विचार करना चाहिये, कि क्या कोई नय सत्य या कोई नय
और शेष चार गुणस्थानों में शुक्लध्यान माना है। दोनों ही तरह की असत्य कहा जाये या नहीं। व्याख्याओं में चतुर्थ गुणस्थान में धर्मध्यान स्वीकार किया गया है। नय की परिभाषा- 'प्रमाण के द्वारा सम्यक् प्रकार से
इस संबंध में कुछ अन्य आचार्यों ने विचार इस प्रकार भी ग्रहण किया गया वस्तु का अंश/ धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञान प्राप्त होते हैं।
नय कहलाता है।' ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते है। जो नाना 1. तत्वानुशासन में इस प्रकार कहा है :
स्वभावों से हटाकर किसी एक स्वभाव में वस्तु को ले जाता है, मुख्योपचार भेदेन धर्मध्यानमिह द्विधा।
वह नय कहलाता है (आ.पा. 186) नय के मृल दो भेद होते है। अप्रमत्तेषु तन्मुख्यामितोष्वोपचारिकं ।। 47 ।।
1. निश्चयनय 2. व्यवहार नय।
- मार्च 2003 जिनभापित 2)
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