Book Title: Jinabhashita 2003 03 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 4
________________ सम्पादकीय चतुर्विध संघ की परिभाषा एक मित्र ने मेरे जनवरी 2003 के सम्पादकीय पर कुछ आपत्तियाँ उठाई हैं । लिखा हैं कि मैंने यह कहने का प्रयास किया है कि जिन संघों में मुनि और आर्यिका रहती हैं, उन सब का आचरण संदिग्ध है । उन्होंने प्रश्न किया है कि क्या बिना आर्यिकाओं के चतुर्विध संघ की कल्पना की जा सकती है? (देखिए-आपके पत्र) मेरा नम्र निवेदन है कि मैंने वैसा कहने का प्रयास कतई नहीं किया, जैसा उन्होंने मुझ पर आरोप लगाया है। मैंने यह कहा है कि मुनि संघों में आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों के सदा साथ रहने से अपवादकारी घटनाएँ घट सकती हैं, जैसी कि कुछ वर्ष पूर्व सुनी जा चुकी हैं। एक घटना के समाचार का प्रसारण तो दूरदर्शन तक पर हो चुका है और उस पर समाज के गण्यमान्य पुरुषों की जाँच कमेटी भी बैठ चुकी है। कामवासना मनुष्य की बहुत बड़ी कमजोरी है। ऋषि-मुनियों को इसे वश में रखना तलवार की धार पर चलने के समान कठिन होता है। जरा भी चूके और पाँव कटा। इसीलिए उन्हें ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा के लिए अपने चारों ओर कटीले तारों की बाड़ लगानी पड़ती है। मानवस्वभाव के मर्मज्ञ ज्ञानी पुरुष अनादिकाल से कहते आ रहे हैं घृतकुम्भसमा नारी तप्ताङ्गारसमा पुमान्। तस्माद्धतं च वह्निं च नैकत्र संस्थापयेत्॥ अर्थात् स्त्री घी के घड़े के समान है और पुरुष तपे हुए अंगार के समान । इसलिए घी और अग्नि को पास-पास नहीं रखना चाहिए। यद्यपि अपवादकारी घटना विरले ही संघ में विरली ही होती है, तथापि एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है। किसी एक संघ में अपवादकारी घटना घटती है, किन्तु सभी संघों को लोग सन्देह की दृष्टि से देखने लगते हैं, जो जिनशसन की सेहत के लिए ठीक नहीं है। आज तो कटीले तारों की बाड़ लगाना और भी अधिक आवश्यक हो गया है, क्योंकि युवा मुनियों, आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों की संख्या बढ़ रही है। हो सकता है, उनमें से कतिपय तात्कालिक भावावेश-वश अथवा ख्यातिपृजालाभ से प्रेरित होकर इस मार्ग पर आ रहे हों। ऐसे लोग नकली सिक्के साबित हो सकते हैं और संघ तथा जिनशासन को लांछित करने का कारण बन सकते हैं। इसलिए आर्यिका संघ और मुनिसंघ का पृथक्-पृथक रहना ही उचित है। आर्यिकाओं के बिना चतुर्विध संघ की कल्पना नहीं की जा सकती, यह कथन एकान्तत: सत्य नहीं है । आचार्यों ने चतुर्विघ संघ या चातुर्वर्ण संघ की व्याख्या दो प्रकार से की है "चातुर्वर्णस्य श्रमणसंघस्य। अत्र श्रमणशब्देन श्रमणशब्दवाच्या ऋषिमुनियत्यनगारा ग्राह्याः।...अथवा श्रमणधर्मानुकूलश्रावकादिचातुर्वर्णसङ्यः ।"(प्रवचनसार, ता.वृ. गाथा २४९) अर्थात् ऋषि, मुनि, यति और अनगार, इन चार का समूह चातुर्वर्ण श्रमणसंघ कहलाता है। अथवा श्रमणधर्म के अनुकूल चलनेवाले श्रावक, श्राविका, मुनि और आर्यिका को चातुर्वर्ण संघ कहते हैं। इस आर्षवचन के अनुसार तो आर्यिका और श्रावक-श्राविका इन तीन के बिना भी केवल ऋषि, मुनि, र्यात और अनगार इन चार से 'चतुर्विधसंघ' संज्ञा सार्थक होती है। फिर भी मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका के समूह को भी 'चतुर्विध संघ' नाम दिया गया है। किन्तु उपर्युक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि इन चारों के एक साथ रहने को चतुर्विध संघ नहीं कहते, अपितु ये चारों अलग अलग रहें तो भी इन चारों को सामूहिकरूप से 'चतुर्विध संघ' संज्ञा होती है। अर्थात् चतुर्विध संघ श्रमणधर्म के अनुकूल चलने वाले (जिनधर्मानुयायी) समाज की चार श्रेणियों का वाचक है। अत: आर्यिकाएँ किसी मुनिसंघ के साथ न रहें, तो भी वे चतुर्विध संघ के अन्तर्गत मानी जायेंगी, जैसे श्रावक-श्राविकाएँ मुनि संघ के साथ न रहने पर भी चतुर्विध संघ के अन्तर्गत मानी जाती हैं। यदि कहा जाय कि चतुर्विध संघ सदा अपने आचार्य के साथ न रहे तो उनका संघ चतुर्विधसंघ कैसे कहलायेगा? इसका उत्तर यह है कि जैसे श्रावक-श्राविकाओं के सर्वदा साथ न रहने पर भी आचार्य का संघ चतुर्विध संघ कहलाता है, वैसे ही मुनियों और आर्यिकाओं के भी सदा साथ न रहने पर उनका संघ चतुर्विध संघ कहलायेगा. यदि वे उनसे दीक्षित हैं और उनके अनुशासन में रहते हैं तो । परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के संघ की आर्यिका माताएँ सदा उनके साथ नहीं रहती, फिर भी वे उनके अनुशासन में चलती हैं, इसलिए आचार्यश्री का संघ चतुर्विध संघ है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। इसलिए चतुर्विध संघ की द्वितीय परिभाषा के अनुसार आर्यिकाओं के बिना चतुर्विध संघ की कल्पना अवश्य नहीं की जा सकती, किन्तु इसका तात्पर्य यह तो नहीं है कि जब वे आचार्य के साथ या अन्य मुनियों के साथ सदा रहेंगी तभी संघ चतुर्विध संघ कहलायेगा। इसके बिना भी कहला सकता है। अत: आर्यिकाओं के बिना चतुर्विध संघ की कल्पना न कर पाने के तर्क से यह सिद्ध नहीं होता कि उनका आचार्य या अन्य मुनियों के साथ ही सदा रहना आवश्यक है। जैसी घटनाएँ पूर्व में सुनने को मिली हैं, उन्हें देखते हुए और मानवस्वभाव की कमजोरियों को ध्यान में रखते हुए जिनशासन को कलंकित होने से बचाने के लिए यही उचित है कि मुनिसंघ और आर्यिका संघ पृथक् पृथक ही रहें । यदि कोई मुनिसंघ इस नियम का पालन कर रहा है, तो यह प्रशंसनीय और अनुकरणीय है । किमी की प्रशंसनीय प्रवृनि के उल्लंख को अन्य के प्रति अनादरभाव की अभिव्यक्ति मान लेना 'गणिप प्रमोदं' का लक्षण नहीं है। रतनचन्द्र जैन 2 मार्च 2003 जिनभापित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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