Book Title: Jinabhashita 2003 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ मानकर टीका लिखी है। समसयसर को दस अधिकारी में विभक्त | स्वभावरूप एक भाव प्रकट किया है, ऐसा शुद्धनय ही उपरितन किया है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने जीवाजीवाधिकार को एक ही | एक शुद्ध सुवर्णावस्था के समान जाना हुआ प्रयोजनवान् है, परन्तु माना है, किन्तु आचार्य जयसेन ने इसको दो अधिकारों में विभक्त | जो पुरुष प्रथम द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पच्यमान कर टीका की है जीवाधिकार में 43 गाथाएँ और आजीवाधिकार | अशुद्ध स्वर्ण के समान वस्तु के अनुत्कृष्ट मध्यम भाव का अनुभव में 39 गाथाएँ है। इस प्रकार एक अधिकार को दो भागों में विभक्त करते हैं उनको अनितम पाक से उतरे हुए शुद्ध सुवर्ण के समान करने से आचार्य अमृतचन्द्रसूरि की अपेक्षा इन्होंने यह अध्याय वस्तु के उत्कृष्ट भाव का अनुभव न होने से उस काल में जाना बढ़ा दिया। अंत में स्याद्वाद अधिकार रूप से ग्रन्थ समाप्ति के | हुआ व्यवहारनय ही प्रयोजवान् है। अनन्तर जोड़ा है आचार्य जयसेन की विशेषता है कि प्रत्येक उक्त कथन के परमशुद्धभाव का अनुभव क्षीणमोही मुनि अधिकार या उप परिच्छेद या उप परिच्छेद के प्रारंभ में इन्होंने इस | के घटित होता है। उससे पूर्व सभी अशुद्धभाव में ही हैं। श्रेणी में अधिकार का विश्लेषण विषयवस्तुओं के अनुसार गाथाओं की बुद्धिपूर्वक राग का भाव होने से शुद्धोपयोगी मुनि के भी कथाञ्चित संख्या को भी उपस्थित कर दिया। यथा “प्रथमतस्तावदष्टाविंशति | परमभाव का अनुभव कहा जा सकता परन्तु छठे सातवें गुणस्थान गाथा पर्यन्त जीवाधिकार : कथ्यते।" अधिकार के अन्त में "इति | तक तो शुभोपयोग ही है अत: यहाँ तक तो परमभाव का अनुभव समयसारव्याख्यायां शुद्धात्मानुभूतिलक्षणाया तात्पर्यवृत्तो | है ही नहीं। आचार्य जयसेन स्वामी ने इसे सरल रूप से प्रस्तुत स्थलसप्के नजोपर सदिअप्पाणुमित्यादि, सप्तर्विशतिगाथा: करते हुए कहा है कि शुद्ध निश्चयनय, शुद्धता को प्राप्त हुए तदनन्तरगुपसंहार सूत्रकेमिति ससमुदायनोष्टाविंशतिगाथाभिर्जीवा- आत्मदर्शियों के द्वारा जानने अनुभव करने योग्य है क्योंक वह धिकार : समाप्तः।" सोलहवानी स्वर्ण के समान अभेदरत्नत्रयस्वरूप समाधिकाल में प्रत्येक गाथा का परिचय पीठिका के द्वारा दिया गया है।। प्रयोजनवान् है । समाधि रहित अशुद्धावस्था वालों को व्यवहारनय इनके द्वारा उपस्थापित पाठिका सामान्य रूप से गाथा में वर्णित | प्रयोजनवान् है जो लोग अशुद्धरूप शुभोपयोग में जो कि विषय को स्फुट करने में समर्थ होती है। इनकी प्रत्येक गाथा को असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा श्रावक की अपेक्षा तो सरागसम्यग्दृष्टि शब्दशः स्पष्ट करने की शैली महत्त्वपूर्ण है। आचार्य श्री लक्ष्य वाला है और प्रमत्त-अप्रमत्तसंयत की अपेक्षा भेदरत्नत्रय अमृतचन्द्रसूरि ने गाथा को शब्दश: स्पष्टीकरण की शैली को नहीं लक्षण वाला है। अत: इनके व्यवहार प्रयोजजनीभूत है। अपनाया इसलिये उनके द्वारा लिखित आत्मख्याति सर्वसामान्य आगे 179, 180 गाथाओं की टीका में आचार्य श्री को विषयबोध का माध्यम नहीं बन सकी आचार्य जयसेन का पूर्ण अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि जब यह ज्ञानी जीव शुद्धनय से च्यत् प्रयास आचार्य अमृतचन्द्रसूरि द्वारा प्रस्तुत विषय की संगति रखने हो जाता है तब उसके पूर्व बद्ध प्रत्यय पुद्गल कर्मों से बंध करा में रहा है। तथाहि (उदाहरणार्थ) पद के माध्यम से आचार्य देते हैं। इनकी टीका करते हुए आचार्य जयसेन ने कहा है कि जब अमृतचन्द्र स्वामी ने मन्तव्यों को समन्वित करते हुए गाथा की तक ज्ञानी जीव की भी परमसमाधि का अनुष्ठान नहीं हो पाता है, टीका पूर्ण करते हैं। साथ में कभी-कभी अत्राह शिष्यः, परिहारम् तब तक वह भी शुद्धात्मा के स्वरूप को देखने में जानने में और आह आदि जैसे शब्दों के साथ नवीन विवेचनों को जोड़ देते हैं। वहाँ स्थिर रहने में असमर्थ होता है। आचार्य जयसेन स्वामी ने अनेक स्थलों पर आचार्य । समयसार तात्पर्ववृत्ति में मुख्य रूप से ज्ञानी सम्यग्दृष्टि अमृतचन्द्रसूरि का सन्निकट रूप से अनुगमन भी किया है। और | समयग्दृष्टि सप्तम आदि अप्रमत्त गुणस्थानों में माना है किन्तुसुबोध रूप से अधिक बार उनका निर्देश भी किया है। जैसे जह्या दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणोवि परिणमदि। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने "सुद्धो सुद्धोदेसो णायव्वो" इत्यादि अण्णत्तं णणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो॥ गाथा की टीका में लिखा है "ये खलु पर्यन्त पाकोत्तीर्ण समयसार 179 जात्यकार्त स्वर स्थानीयं परमं भावमनु भवन्ति, तेषां आत्मा का ज्ञान गुण जब तक जघन्य अवस्था में रहता है प्रथमद्वितीयद्यनेकपाकपरम्परापच्मानकार्तस्वरानुभवस्थानीयपरमतापानुभ- | अर्थात् स्पष्टतया यथाख्यात दहन को प्राप्त नहीं होता तब तकग वनशून्रूत्याच्छुद्धद्रव्यादेशतया समुद्योतितास्खलि तैकस्वभावैकभावः | अन्तर्मुहर्त के पश्चात् अन्यपने (निर्विकल्पता से सविकल्पता) शुद्धिनय एवोपरितनैकरप्रतिवर्णिका स्थानीयत्वापरिज्ञायमानः / को प्राप्त होता रहता है, इसलिये उस समय वह नवीन बन्ध करने प्रयोजनवान्।' अर्थात् जो पुरुष अन्तिम पाक से उतरे हुए शुद्ध | वाला भी होता है। सोने के समान वस्तु के उत्कृष्ट असाधारण भाव का अनुभव करते | इस गाथा की टीका में आचार्य जयसेन स्वामी ने स्पष्ट हैं, उनको प्रथम द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पच्यमान | किया है कि मिथ्यादृष्टि के ज्ञान गुण से काललब्धि के द्वारा सम्यक्त्व (पकाये जाते हुए) अशुद्ध स्वर्ण के समान अपरमभाव का अर्थात् प्राप्त होने पर यह ज्ञान मिथ्यापने को त्याग कर सम्यग्ज्ञापने को अनुत्कृष्ट मध्यम भाव का अनुभव नहीं होता। इस कारण शुद्ध | प्राप्त कर लेता है, इसलिये वह ज्ञानगुण अथवा ज्ञानगुण के स्वरूप द्रव्य का ही कहने वाला होने से जिसने अचलित अखण्ड एक | में परिणत जीव अबन्धक कहा जाता है इस कथन के आधार पर 16 मार्च 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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