Book Title: Jinabhashita 2003 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ समयसार-तात्पर्यवृत्ति : एक चिन्तन डॉ. श्रेयांसकुमार जैन अध्यात्म की अजस्त्र धारा प्रवाहित करनेवाला | नवम अंक के अंत में समाप्ति सूचक पंक्तियाँ इस प्रकार है श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत 'समयसार' आत्मतत्त्व प्ररूपक ग्रन्थों | 'इति श्री अमृतचन्द्रसूरि विरचितायां समससारव्याख्यात्मख्यातौ में सर्वश्रेष्ठ है। इसका मंगलाचरण करते हुए ग्रंथकार ने 'वोच्छामि | सर्वविशुद्धज्ञानप्ररूपको नवमोङ्कः। नवम अंक के बाद नयों का समयपाहुडमिणमो सुदकेवली भणिदं' प्रतिमा वाक्य लिखा है, | सामञ्जय उपस्थित करने के लिए स्याद्वादाधिकार तथा जिसके आधार पर ग्रन्थानाम 'समयपाहुड' अवगत होता है। प्राकृत उपायोपेयभावाधिकार नामक दो स्वतंत्र परिशिष्ट जोड़ दिये जाते पाहुडं की संस्कृत छाया 'प्राभृतम्' है समय + प्राभृतम् दोनों शब्दों | है। यह दर्शाने का टीकाकार का प्रयास है कि जीव अजीव आस्रव के संयोग से कृति संज्ञा 'समयप्राभृतम्' हुई। 'समयप्राभृतम्' संज्ञा | आदि नाटक के अभिनेताओं की भूमिका निभाये हुए हैं। द्वितीय की सार्थकता जानने के लिए समय और प्राभृत दोनों शब्दों की अंक के पश्चात् अन्य अंकों के अन्त में आरम्भ में नाटकीय शब्द, निरुक्तियाँ अपेक्षित है। 'समयते युगपत् जानातीति', इस निरुक्ति | जैसे निष्क्रान्तः प्रविशति आदि का प्रयोग किया गया है। साथ में के अनुसार समय शब्द का अर्थ 'आत्मा' निष्पन्न होता है। अथवा यत्र-तत्र संस्कृत नाटकों में प्राप्त होने वाले शब्दों का भी सामान्य 'सम एकीभावेन स्वगुण पर्यायान् गच्छति' इस निरुक्ति से समय रूपेण उपयोग है। शब्द का अर्थ समस्त पदार्थों में घटित होता है, क्योंकि पदार्थ आचार्यवर्य अमृतचन्द्रसूरि के समयसार की 415 गाथाओं अपने ही गुण पर्यायों को प्राप्त है। दूसरी व्युत्पत्ति "सम्यक् अयः पर टीका लिखी है। टीका के मध्य गाथाओं के सारभूत विषयों को बोधो यस्य सः भवति' समय 'आत्मा' अर्थात् समीचीन बोध होता 278 कलश काव्यों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। कलश काव्य है जिसका, वह समय है। समय शब्द का अर्थ आत्मा है। आत्मा | अत्यन्त रोचक एवं भावपूर्ण हैं। कलश काव्यों ने ही टीका को ही जानने वाला है और इसका स्वभाव सर्व पदार्थों का सत्तात्मक | महत्तवपूर्ण बना दिया है और स्वाध्यायाजनों की अभिरुचि जगायाी बोध है। स्वयं कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने भी निर्मल आत्मा को समय | है। आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि का सम्यक् रूप से अनुगमन करते कहा है।' प्राभृत शब्द की व्युत्पत्ति"प्रकर्षेण आसमन्ताद् भृतामिति | हुए विलक्षण प्रतिभावान् सिद्धान्तविद् आचार्यवर्य श्री जयसेन स्वामी प्राभृतम्' अर्थात् प्रकर्षरूप से सभी ओर से भरा हुआ अथवा | ने अत्यन्त सरल और सुबोध संस्कृत में सर्वजन संवेद्य तात्पर्यवृत्ति प्रकृष्टैराचायैर्विद्याद्विदाभृतं धारितं व्याख्यामानीतमिति वा प्राभृतम्' | टीका लिख । यह टीका श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य के भावों के उद्घाटन विद्याधनयुक्त महान् आचार्यों के द्वारा जो धारण किया गया है, वह | में पूर्ण सहायक है क्योंकि जयसेनाचार्या आत्मा के शुद्ध स्वभाव है प्राभूत । प्राभृत का अर्थ शास्त्र है। दोनों शब्दों का समास करने | पर मनन करते हुए चले हैं, कहीं-कहीं पुद्गल से भिन्नता दिखाते पर अर्थ होगा आत्मा का शास्त्र है। आचार्य जयसेन ने 'प्राभृतं सारं | हुए और कहीं-कहीं कर्म, कार्मास्रव, कर्मबंध आदि स्वभाव का सार: बद्धावस्था समसस्यात्मनः प्राभृतं समयप्राभृतम् अथवा समय | विवेचन करते हुए और कहीं-कहीं संवर और निर्जरा का उपाय एवं प्राभृतम् समय प्राभृतम्' लिखकर आत्मा की शुद्धावस्था अर्थ | निदर्शन से टीका ने अध्यात्म विद्या के अध्येताओं को विशिष्ट रूप किया है। से प्रभावित किया है। इस ग्रन्थराज पर सर्वप्रथम आध्यात्मिक जागृति के अग्रदूत टीकाकार के रूप में आचार्य श्री जयसेन को जो प्रसिद्धि महाकवीश्वर विशिष्ट भाषाविद् असाधारण प्रतिभाशाली आचार्य | मिली है, वह अद्यावधि किसी ने भी प्राप्त नहीं की क्योंकि टीका श्री अमृतचन्द्रसूरि ने दण्डान्वय प्रक्रिया को आश्रय लेकर | लिखने की इनकी अपनी विशिष्ट विधि है। इन्होंने पद-खण्डनाविधि आत्मख्याति नामक टीका लिखी। इसकी भाषा समास बहुल है।| को अपनाया है। वस्तुत: टीकाकरण की यही विधि श्रेष्ठ है। इससे दार्शनिक प्रकरणों के कारण सामान्जनों के लिए दुरूह हो गयी है। मूल की सुरक्षा होती है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के मूल शब्दों इस टीका में 'समयसार' को नाटक का रूप दिया गया है। टीकाकार | की संरक्षा में इनकी प्राकृत शब्दानुसारी टीका का महत्त्वपूर्ण स्थान ने नाटकीय निर्देशों को पूरा-पूरा स्थान दिया है। यथा पीठिका है। इन्होंने प्राकृत विलक्षणताओं पर पाठकों का विशेष ध्यान परिच्छेद को पूर्वरङ्ग कहा गया है। कृति को नाटक के समान १ आकृष्ट किया है। टीका में सुरक्षित मूल ग्रन्थ पाठ विविध भाँति से अंकों (अधिकारों) में विभक्त किया गया है मूल्यवान् है और दीर्घतर पुनरीक्षण के लिये उनकी कर्तव्य निष्ठा (1) जीवाजीव, (2) कर्ताकर्म (3) पुण्य (4) आस्रव वस्तुत: श्रेयस्कर है।' (5) संवर (6) निर्जरा (7) बंध (8)मोक्ष (9) सर्वविशुद्ध आचार्य श्री जयसेन स्वामी ने 439 गाथाओं पर तात्पर्यवृत्ति ज्ञान। टीका लिखी है। समस्त गाथाओं को कुन्दकुन्द स्वामी रचित ही -मार्च 2003 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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