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मातृत्व की सच्ची संरिक्षका : अंजना
डॉ. नीलम जैन अंजना का चरित्र पूर्वोपार्जित दुष्कर्म के फलों को भोगती | चकवे से विरक्त एक चकवी की शोकाकुल विरह दशा का चिन्तन हुई, मुसीबत झेलती हुई एक नारी का करूणामय चित्र है। उन्हें | करने लगे कि हा! एक निर्दोष बाला के प्रति मेरे द्वारा महापराध समझने के लिए अन्तरात्मा की गहराइयों में झाँकना होगा। विवाह | हुआ। यदि मैं इसी समय विरहाग्नि में दग्ध उस सुकुमारी से नहीं की प्रथम रात को ही अककारण परति द्वारा श्वसुरगृह से निष्कासित मिलूँगा तो वह अब निश्चित ही मरण को प्राप्त हो जायेगी।" यह निर्जन वन की शून्य कन्दराओं में भयावह सन्नाटों की कंपकंपाहट | सोंचकर पवनञ्जय उसी क्षण आवश्यक सामग्री लेकर मित्र प्रहसित को आत्मसात करना होगा। बिना आँसुओं की नदी पार किए, के साथ भवन में आये। प्रहसित ने अंजना के पास बसन्तमाला दासी संग वन-वन भटकती राजकन्या को नहीं जाना जा सकता। | द्वारा पति आगमन के समाचार भेजे। अपने आराध्य को आगमन .. अनुपत रूप लावण्य की पुञ्ज अंजना को यौवनपती देख | सुनकर एवं उन्हें सम्मुख देखकर अंजना विस्मित हो गई, उसे पिता महेन्द्र एवं माता हृदय वेगा के मन में उसके विवाह की एकाएक विश्वास नहीं हुआ। वह सोचने लगी कि कुछ क्षणों में चिन्ता उत्पन्न होना स्वाभाविक थी। मंत्रियों से परामर्श कर पिता ही मेरा विषसिक्त कर्म-कलश अनुपम सुधा से कैसे आप्लावित महेन्द्र ने आदित्यपुर के राजा प्रहलाद और रानी केतुमती से उत्पन्न | हो गया? कुमार अपनी अनुनय विनय पूर्ण मधुर वाक् रूपी जली पवनञ्जय कुमार को कन्या देने का निर्णय लिया। पश्चात फाल्गुन | से अंजना की विषादाग्नि को शान्त कर समयोचित कार्यों के मास का अष्टाहिका पर्व मनाने हेतु राजा सपरिवार कैलाश पर्वत | संलग्न हो गये। कड़ा-मुद्रिका निशाली देकर कुमार उसी रात युद्ध पर गये। वहाँ राजा पहलाद से मिलाप हुआ, चर्चा-वार्ता हुई, तथा | के लिए पुन: प्रस्थान कर गये। तीन दिन पश्चात ही अंजना पवनञ्जय का विवाह होना निश्चित । चिर वियोग के बाद पति के मुधर मिलन के प्राप्त हुई, सुख हो गया। रागोद्रेक में अंजना को देखे बिना पवनञ्जय को तीन | देने वाली पुलक भरी मादक स्मृतियों को संजोये हुए अंजना दिन की अवधि एकाकी बिताना भी असह हो रहा था, अत: वे | कालचक्र की धुरी पर त्वरित गति से गमन कर ही थी। गर्भ चिह्न उसी रात्रि मित्र प्रहसित को साथ ले अंजना को देखते हेतु उसके | भी शनैःशनैः प्रकट हो रहे थे, जिन्हें देख कर सास केतुमती ने महल की छत पर जा पहुँचे, तथा झरोखे में से उसका रूपपान सती पर कलंक का टीका लगाया और निर्भयतापूर्वक बसन्तमाला करने लगे। उसी समय अंजना के तीव्र पापोदय से प्रेरित होते हुए के साथ उसे राजा महेन्द्र के नगर के समीप छुड़वा दिया। भी अंजना की सखी ने उपहास में अंजना के भावी पति पंवनञ्जय दिनमणि विपुल आंतक-त्रस्त एवं अन्र्ददाह में झुलसती की कटु आलोचना की। जिसे सुनकर कुमार कुद्ध हो उठे, तथा | हुई अंजना को देख सकने एवं पाषाण को तरह कर देने वाले उन्होंने वहाँ से प्रस्थान करने का निश्चय किया। यह समाचार उसके करूण क्रन्दन को सुन सकने में असमर्थ होने से मानों सुनकर राजा प्रहलाद और राजा महेन्द्र, पवनञ्जय के समीप आये अस्ताचल की ओट में छिप गये। जैसे-जैसे रात्रि धनीभृत होती तथा उन्हें बहुत समझाया। पिता और श्वसुर के गौरव को भंग | जा रही थी, वैसे-वैसे अंजना का मनस्ताप बढ़ता जा रहा था। अब करने में असमर्थ कुमार ने विवाह करना तो स्वीकार कर लिया क्या होगा? अब क्या होगा? किन्तु विवाह के तुरन्त बाद ही सुकुमारी अंजना का परित्याग कर आश्रय पाने की इच्छा से वह जिस आत्मीय जन के यहाँ दिया।
गई, सर्वत्र "द्वार बन्द करो", सर्वत्र "द्वार बन्छ करो" की अवाज इस प्रकार शोकसंतप्त अंजना जिस समय दुख समुद्र में | सुनाई देती थी। सखी के साथ चलती अंजना मातंग-मालिनी उन्मज्जन निमज्जन कर रही थी, तभी उसे ये शब्द कर्णगोचर होते नामक भयंकर अटवी में पहुँची। एकाएक गुफा में प्रवेश करने का हैं। राजा वरूण से रावण का युद्ध छिड़ गया है, अत: उसकी | साहस नहीं हुआ। अत: अवसादमयी क्लान्त शरीर वाली अंजना वेदना नदी में एकाएक बाढ़ आ गई। पति दर्शन की आशा से ने कुछ क्षण विश्राम किया। पश्चात् अपनी दृष्टि गुफा पर डाली। प्रेरित वह कृशांगी प्रमुख द्वार पर आ पहुँची। महल से निकलते ही | वहाँ उन्होंने सुमेरू सदृश अचल, ध्यानमग़ अमितगति नाम के कुमार से सहसा अंजना पर पड़ती हुई अपनी दृष्टि को शीघ्र ध्यान मग्न मुनिराज को देखा। संकुचित कर लिया तथा कहा कि हे दुख लोकने ! तू इस स्थान से दोनों का मन कमल आनंद से प्रफुल्लित हो उठा। वे शीघ्र हट जा। तुझे देखने के लिए मैं असमर्थ नहीं हुँ। "आहो!" अपना अपरिमित सुख भूल गई। अन्दर जाकर भावपूर्वक तीन कुमार की तिरस्कार पूर्ण कुट वाणी सुनकर अंजना मूर्च्छित हो । प्रदक्षिणा दी और भावपूर्वक बारम्बार नमस्कार किया। मुनिराज गई।
का ध्यान समाप्त हुआ। उन्होंने उन दोनों को अमृत प्रशान्त एवं कुमार मानसरोवर तट पर पहुँचे। वहाँ एक रात अपने पति | गम्भीर वाणी में आशीर्वाद दिया। 20 मार्च 2003 जिनभाषित
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