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मैं साक्षात् जिनेन्द्र देव की शरण में हूँ। पाँचों कल्याणकों की क्रियायें प्रतिष्ठाचार्य विधिपूर्वक कराते हैं। प्रतिष्ठा ग्रन्थों में प्रतिचार्य तथा प्रतिष्ठा कराने वालों के लक्षण दिए हैं। इस लघु लेख में उनकी चर्चा सम्भव नहीं। यहाँ संक्षेप में पाँचों कल्याणकों का स्वरूप जानना आवश्यक है।
गर्भ कल्याणक : तीर्थंकर प्रकृति से युक्त जीव जब माँ के गर्भ में आता है तो उसके छः माह पहिले से ही अतिशयकारी घटनाएँ होने लगती हैं। सौधर्म इन्द्र की आज्ञा पाकर कुबेर स्वर्गवत् नगरी का निर्माण करता है जिसे जिनेन्द्रपुरी कहा जा सकता है। तीर्थंकर के जन्म के पन्द्रह माह पूर्व से ही जिनेन्द्रपुरी में प्रातः, मध्याह व सायं तथा मध्यरात्रि में चार बार साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा होती है। इस प्रकार चौदह करोड़ रत्नों की वर्षा प्रतिदिन होती है। तीर्थंकर प्रभु की माँ रात्रि के अन्तिम प्रहर में निम्न सोलह स्वप्न देखती है। पंच मंगल पाठ में इन स्वप्नों का इस प्रकार वर्णन किया गया है :
सुर कुंजर सम कुंजर धवल धुरंधरो । केहरि केशर शोभित नख-शिख सुन्दरो । कमला कलश-हवन, दुइ दाम सुहावनी ॥ रवि शशि- मंडल मधुर, मीन जुग पावनी ॥ पावनि कनक घट जुगम पूरन, कमल कलित सरोवरो । कल्कोलमाला कुलित सागर, सिंह पीठ मनोहरो ॥ रमणीक अमर विमान, फणिपति- भुवन रवि छवि छाजई ॥ रुचि रतनराशि दिपंत, दहन, सु तेज पुंज विराजई ॥
प्रातः वह अपने पति से इन स्वप्नों का फल पूछती है । तीर्थंकर के पिता फल बतलाते हुए कहते हैं कि तुम्हारे गर्भ से तीर्थंकर जन्म लेंगे। स्वर्ग से आयी देवियाँ माता की सेवा करती हैं और अनेक प्रकार के मनोरंजनों से उनका मन बहलाती हैं।
जन्म कल्याणक : जब तीर्थंकर बालक का जन्म होता है। तो सर्वत्र सुख और शान्ति छा जाती है। नारकी जीव भी क्षणभर को सुखानुभूति करते हैं । इन्द्र अपने परिवार और चार निकाय के देवों के साथ जिनेन्द्रपुरी की तीन प्रदक्षिणा कर स्तुति करते हैं। इन्द्राणी मायामयी बालक को रखकर यथार्थ बालक को गोद में लेकर ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो सुमेरु पर्वत पर पाण्डुक वन की ऐशान दिशा में बनी पाण्डुक शिला पर बालक को विराजमान करते हैं । पंक्तिबद्ध देवों द्वारा 1008 मणियों के कलशों में क्षीर सागर से लाये गये जल से भगवान् का अभिषेक करते हैं पश्चात् घर ले जाकर धूमधाम से जन्मोत्सव मनाते हैं।
तप कल्याणक किसी निमित्त को प्राप्त कर तीर्थंकर बालक के मन में वैराग्य ज्योति उत्पन्न होती है। तभी लौकान्तिक देव आकर उनकी दीक्षा, तप या वैराग्य की अनुमोदना करते हैं
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मार्च 2003 जिनभाषित
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और कहते हैं कि हे भगवान्! आपने जिस जैनेश्वरी दीक्षा लेने का निश्चय किया है वही एकमात्र आत्म कल्याण का उपाय है। भगवान् तपोवन जाने के लिए जिस पालकी में विराजमान होते हैं उसे भूमि गोचरी मनुष्य अपने कंधे पर सात कदम ले जाते हैं उसके बाद विद्याधर तदनन्तर इन्द्रादि देवता कंधों पर रखकर आकाशमार्ग से दीक्षा वन में पहुँच जाते हैं। वहीं दीक्षा कल्याणक मनाया जाता है। तीर्थंकर समस्त वस्त्राभूषण और परिग्रह का त्याग कर देते हैं वे पद्मासन में पूर्व की ओर मुख करके विराजमान होते हैं और पाँच मुट्ठियों में पकड़कर अपने सिर के केशों को उखाड़ डालत हैं। वे कठोर तप करके अपने कर्मों की निर्जरा करते हैं।
ज्ञान या केवलज्ञान कल्याणक : कठोर तप के बल से भगवान् ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय, अन्तराय इन चार कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं । केवलज्ञान के द्वारा वे तीनों लोकों और तीनों कालों के सभी द्रव्यों और पर्यायों को हाथ में रखे हुए आंवले की तरह देखते हैं । केवलज्ञान की ज्योति प्रकट होते ही कल्पवासी आदि देवताओं के घर घंटा आदि के शब्द होने लगते हैं। वे आकर केवलज्ञान प्राप्ति महोत्सव मनाते हैं और भगवान् की पूजा करते हैं।
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इन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवशरण की रचना करता है। जिसमें मुनि आर्यिका श्रावक-श्राविकाएँ, देव, पशु-पक्षी आदि सभी बैठकर भगवान् की अमृतमयी वाणी का पान करते हैं। भगवान् की इस वाणी को दिव्य ध्वनि कहते हैं। इसे सभी अपनी अपनी भाषा में समझते हैं। तीर्थंकर सबके कल्याण की बात कहकर उनका मार्ग प्रशस्त करते हैं।
सर्वत्र
मोक्ष या निर्वाण कल्याणक : समवशरण के साथ घूमकर अपनी दिव्य देशना से भव्य जीवों को कल्याण का मार्ग दिखाकर योग निरोध के बल से तीर्थंकर चारों कर्मों का नाश करके अयोग केवली बन जाते हैं। ऊर्ध्वगमन का स्वभाव होने से वे लोकाकाश के सबसे ऊपर सिद्ध शिला पर जाकर विराजमान हो जाते हैं। अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य रूप और अनन्त चतुष्टय को प्राप्त कर लेते हैं। भगवान् का शरीर कपूर की तरह उड़ जाता है। उसके परमाणु त्रिभुवन व्याप्त हो जाते हैं।
हमारे पुण्य कर्म के उदय से हमें तीर्थंकर भगवान् के पंचकल्याणक मनाने का अवसर मिला है अतः पाँचों कल्याणकों में प्रतिदिन पहुँचकर क्रियाएँ देखना चाहिए तथा भावना भाएँ कि हे प्रभु हमारे भी ये गर्भ, जन्म अन्तिम हों हम भी तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा कर, केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त करें।
तो आइये! उठिये संकल्प कीजिए कि हम होने वाले पंचकल्याणकों में प्रतिदिन की क्रियाएँ अवश्य देखेंगे।
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