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जल क्यों छानें
मुनिश्री निर्णयसागर जी
हिंसा धर्म की सुरक्षा करना है। दूसरी दृष्टि शारीरिक स्वास्थ्य रक्षा है। पानी को सही तरीके से छानकर उबलाकर प्रयोग करें तो मेरा अनुभव है कि 90 प्रतिशत बीमारी उत्पन्न ही नहीं होंगी। जैन शास्त्रों में जिस बात को हजारों वर्षों पहले कहा है, वही बात आज का विज्ञान दुष्परिणामों को भोगने के बाद कहता है। इसलिए आज के विज्ञान के विद्यार्थियों को बिना किसी तर्क के जैन शास्त्रों के नियमों को स्वीकार कर लेना चाहिए। इसी प्रकार विज्ञान पहले वनस्पति को जीव नहीं मानता था । किन्तु 1911 में डॉ. जगदीश चन्द्र वसु ने वनस्पति में जीव सिद्ध करके दिखा दिया। इस तरह जैन दर्शन में कोई व्यक्ति या सम्प्रदाय का उपदेश नहीं है। इसमें तो समग्र समाज की समृद्धि का उपदेश है। पानी छानने के लिए खादी या सूती वस्त्र उपयुक्त है। जिस बर्तन में पानी छानना है उससे चार गुना चौड़ा वस्त्र अवश्य होना चाहिए। सामान्य से 36 अंगुल लम्बे चौड़े कपड़े का कथन हैं कपड़े से सूर्य का प्रकाश न दिखे। इतनी मोटाई होनी चाहिए। कपड़े को हमेशा दोहरा करके छानना चाहिये। कितना भी मोटा कपड़ा हो, इकहरे कपड़े से पानी नहीं छनता है। क्योंकि दोहरे कपड़े के बीच में गीला होने के बाद एक पानी की जाली बन जाती है, मूलतः उसी से पानी के जीव रुकते हैं। पूरा पानी छानने के बाद धीरे से जिवानी बाल्टी में पलट दें। फिर छने पानी से हाथ धोकर छने पानी को छन्ने के ऊपर डालते हुए पूरी जिवानी बाल्टी में भेज देंछ की बाल्टी में अलग जीव रहित प्रासुक स्थान पर निचोड़ दें। जिवानी सहित अच्छी तरह बाल्टी को पानी की सतह तक ले जावें । बाल्टी में नीचे से एक कंड़ा लगा होता है, उसमें रस्सी बाँधी जाती है। ऊपर कड़े में रस्सी में लगे हुए एस आकार (s) के कुंदे को फसाय जाता है। पानी की सतह पर धीरे से बाल्टी को ऊपर झटका लगा हैं, इससे बाल्टी उल्ट जाती है। फिर बाल्टी को ऊपर लाकर पुन छनें पानी से धोकर कुँए में नीचे पानी भेज देते हैं। इस प्रकार पार्न छानने की विधि अब भी आपको समझ में न आयी हो, तो कृपय किसी अनुभवी त्यागी ब्रह्मचारी आदि से प्रेक्टीकल करवाकर समझ लें। विधि पूर्वक पानी छानने से आपको लाखों लाखों जी के अभय दान का फल मिलेगा। पानी छानने के अभाव में पाए बँध होगा, जो इस लोक और परलोक में दुखदायी होगा। पानं बाबड़ी का हो, नदी का हो, चाहे कुँए का हो, जीव रक्षा आवश्यक हैं। आगम शास्त्रों में एक कथानक आता है, कि किसी विवेक श्रावक से असावधानी के कारण जिवानी फैल गयी थी। वह साध महाराज के पास प्रायश्चित लेने गया । प्रायश्चित मिला कि एक साथ अठारह हजार मुनियों को पड़गाहन करके आहार कराओ
आजकल के हिंसा प्रधान वातावरण में लोग पानी छानना पिछली संस्कृति कहकर स्वच्छ संस्कृति की उपेक्षा करते हैं। उन लोगों को भी प्रेमपूर्वक प्रसंगानुसार समझना चाहिए। पानी क्यों छानें? पानी छानने के क्या लाभ हैं? पानी छानने की मूल दृष्टि । तभी आपके पाप की निवृत्ति संभव है। श्रावक घबराया और कह
12 मार्च 2003 जिनभाषित
जिनागम में जैसे जल छानने की विधि कही है, तदनुसार कहता हूँ । हे भव्य जना! प्रेम सहित हृदय में धारण करो। जो 4848 मिनट के अंतर से जल छानकर पीता है उसे परम विवेकी दयावंत श्रावक जानो । छने जल की मर्यादा दो घड़ी की है। इसलिये दो घड़ी (48 मिनट) के बाद पुनः जल छानकर पीना चाहिए। खूब उबले पानी को 24 घंटे, उबले पानी को 12 घंटे और प्रासुक पानी को 6 घंटे तक प्रयोग कर सकते हैं, इसके बाद पानी में सम्यूर्च्चन जीव उत्पन्न होने लगते हैं। नवीन वस्त्र से यत्नपूर्वक जल छानना चाहिए। उन छने जल की एक भी बूँद नीचे न डालें। अज्ञानी लोग जीर्ण-शीर्ण वस्त्र से जल छानते हैं तथा छानते समय अनछना जी पृथ्वी पर डाल देते हैं। इससे बहुत पाप लगता है। जिसे दया का विचार नहीं है वह श्रावक नहीं है उसे अज्ञानी जानना चाहिए। जिसे जल छानने का विवेक नहीं है, उसे धीवर के समान समझना चाहिए। धीवर को एक वर्ष में जो पाप लगता है वह बिना छने पानी बरतने में लगता है अथवा कोई महा अज्ञानी भील ग्यारह बार दावाग्नि लगाता है, इसमें जितना पाप लगता है उतना पाप अनछने पानी बरतने में लगता है उस मनुष्य को भील के समान बताया है। मकड़ी के मुख से निकले तंतु को पानी में डुबोकर उससे जो बूँद टपकाई जाती है। उसे में जो सूक्ष्म जीव होते हैं, यदि वे भ्रमर से बराबर विचरें तो तीन लोग में न समायें। अर्थात् पानी की एक छोटी बूँद में असंख्यात जीव होते हैं ।
छत्तीस अंगुल लम्बे और चौड़े वस्त्र को दुहरा कर उससे पानी छानना चाहिए। जिवानी को उसी जलाशय के जल में विसर्जित करना चाहिए जहाँ से जल निकाला गया है। कितने ही लोग जिवानी ऊपर से फेंक देते हैं। जिसमें जीव बीच में दिवाल आदि से टकरा कर नष्ट हो जाते हैं, तथा दूसरे जीवों को भी नष्ट करते हैं। इसलिए जिवानी जली की सतह तक पहुँचाना चाहिए तथा दूसरों के लिए भ्ज्ञी जल छानने का उपदेश देकर समझाना चाहिए। आलास और प्रमाद को छोड़कर जल छानो। जल छानते समय दूसरों से बातें नहीं करना चाहिए। इतनी सावधानी रखो की जल का एक कण भी नीचे न पड़े। यत्न करते हुए भी एक कण नीचे गिर जावे तो अपनी बहुत निंदा करो। शक्ति अनुसार प्रायश्चित लो। हृदय में जिन आज्ञा का पालन करो। उपरोक्त कथन कविवर किशन सिंह जी ने क्रियाकोष में जिनेन्द्र आज्ञा से किया है।
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