Book Title: Jinabhashita 2003 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ जाओ । अग्नि साक्षी कर देता है बलि, तब ब्राह्मण कहता है कि मुझे कुछ नहीं चाहिए मेरी काया छोटी सी, मेरे पेट छोटा सा बस मुझे तीन पैर जमीन चाहिए । बलि राजा हँसने लगता है खिलखिला कर जैसा रावण हँसता था । कहता है अरे यह तूने क्या माँगा। मेरी बेइज्जती कर दी। इतना बड़ा राजा दान दे रहा है और तू तीन पैर जमीन माँग रहा है! और तेरे पैर नन्हें नन्हें से हैं और कुछ मांग ले। ब्राह्मण कहता है कि सच्चा ब्राह्मण वो ही है जो एक बार माँगता है देना या नहीं। देता हूँ क्या करूँ नहीं तो अभी ये नाराज हो जायेंगे। ब्राह्मण नाराज हो गये तो अभी श्राप दे देंगे क्योंकि ब्राह्मण का श्राप अकाट्य होता है ऐसा पुराणों की मान्यता है। अतः वह कहता है ठीक है नाप ले। और जैसे ही नापने गया पैर बढ़ता गया बढ़ता गया वह ब्राह्मण मेरु प्रमाण बढ़ गया! एक पैर मेरु पर्वत पर रखते हैं तो एक मानुषोत्तर पर्वत पर ऐ बलि बता तीसरा पैर कहाँ पर रखें मैंने पूरी पृथ्वी नाप ली। झुक गया मस्तक, मेरे पुण्य का समापन हुआ। जब तक तोरे पुण्य का बीता नहीं करार । तब तक तुझको माफ है, अवगुण करे हजार पुण्य का प्रताप था मेरे अवगुण सब माफ होते जा रहे थे। आज मेरा पुण्य समाप्त हो गया। मेरी पीठ बची है उसी पर पैर रख दीजिए। पीठ पर पैर रखते हो कहा कि संकल्प कर कि आज के बाद किसी मुनिराज पर उपसर्ग नहीं करूँगा। यज्ञ समाप्त हो गया। मुनिराज जो बेहोश पड़े हैं विष्णु कुमार सारे श्रावकों को बुलाते हैं निकल आओ कायरो जो दरवाजों के अंदर बैठे हो ! मुनिराजों के मरने से पहले तुम क्यों नहीं मर गये! तुम लोगों के आधीन राजा रहता है और प्रज्ञा इतनी कमजोर हो गयी कि राजा के अत्याचार सहन कर लिए। करो सब मुनियों की सेवा । मुनियों का उपचार किया गया। प्रभात काल का समय है मुनियों के लिए सिर श्रावक अपनी गोदी में रखे सहला रहे हैं। सब अपने अपने काम में लग गये। कोई उन हवन कुंडों को हटा रहा है कोई वातावरण को शुद्ध करने में लगा है। कोई उन हड्डी माँस आदि को हटाने में लगा जो दुर्गन्धि फैला रहे थे। और मुनियों को होश धीरे-धीरे आता है। विष्णु कुमार हाथ जोड़े खड़े हैं। हे भगवान् किसी के प्राण न निकल जायें, किसी की श्वास न निकल जाए नहीं तो जिनकी रक्षा के लिए मैंने अपना वेष छोड़ा, उनकी ही रक्षा ना कर पाऊँ । पुण्य का उदय था 700 मुनि उठ गये और कहते हैं मो अरिहन्ताणं णमो सिद्धाणं, सब एक साथ सिद्ध भक्ति पढ़ते हैं और I ध्यान में बैठने लगते हैं। विष्णु कुमार कहते हैं अब ध्यान में बैठने की आवश्यकता नहीं, अब हम लोगों का ध्यान करो, उपसर्ग टल गया अब उपसर्ग नहीं है। उनके जो नायक अकम्पनाचार्य थे वे देखते हैं वास्तव में अब यहाँ उपसर्ग नहीं है ! सब हाथ जोड़े खड़े हैं जो अपराधी था वो भी हाथ जोड़े खड़ा है विष्णु कुमार के बाजू में । विष्णु कुमार कहते हैं हे महाराज महाराज क्षमा करो जिसने वे पाप कया है वह पापी भी सामने खड़ा है। उपसर्ग करने वाले ये चारों आपके चरणों का रज लेने खड़े हैं आपका बरदहस्त चाहते हैं । आपको आशीष चाहते हैं कि ऐसे परिणाम अब किसी भव में न हों । हे महाराज इनके लिए सद्बुद्धि और प्रायश्चित दीजिए। मैंने अनर्थ किया है मगर इन चारों को सुधारने के लिए किया है इस लिए जो प्रायश्चित हो मुझे भी वह दीजिए। महाराजों को चर्या के लिए उठाते हैं। हजारों चौका लगाते हैं। मगर हमारे दिगम्बर साधु तो दिन में एक ही चौके को पवित्र करते हैं। हजारों श्रावकों के चौके खाली रहे। वे पश्चाताप करतं रहे। मैं क्या करूँ 700 घर पवित्र हो गये बाकी जो खाली रहे गये वे विष्णु कुमार से कहते हैं तुमने सबके संकट दूर किये हमारे भी संकट दूर करा दो। हमारे यहाँ भी आहार करवा दो। क्या करें सब कुछ हो सकता है मगर साधु दुबारा चर्या के लिए नहीं उठ सकता। विष्णु कुमार कहते हैं अब क्या करें। सब रो रहे हैं। ऐसे रोते कैसे छोड़ जायें वे कहते हैं कि एक रास्ता है कि जिन श्रावकों के यहाँ मुनिराजों के आहार हुए हैं उन श्रावकों को तुम अपने यहाँ आहार करवा दो तो मुनिराज का आहार हो जायेगा। ऐसा श्रावक मानते हैं और अपने-अपने घर सबने दूसरे के निमंत्रण किये और फिर जितने बचे रहे कहा कि अब तुम उन श्रावकों को भोजन करा दो तो तुम परम्परा से दानी हो जाओगे। सबने अपने घर में निमंत्रण किये। सबने रक्षा सूत्र बाँधे विष्णु कुमार कहते हैं कि करो संकल्प कि मेरे प्राण निकल जायेंगे मगर कभी रत्नत्रयधारियों पर उपसर्ग नहीं आने दूंगा Jain Education International यह इस तरह विष्णु कुमार ने संकल्प कराया था आज भी एक मुनि तुमसे कह रहा है कि नियम लो कि कभी भी दिगम्बर मुनि पर कैसा किंचित मात्र भी उपसर्ग आयेगा तो मैं उसे दूर करने का प्रयास करूँगा । विष्णु कुमार इन सारे विधिविधानों का विधान करके प्रायश्चित्त लेकर पुनः मुनिमुद्रा धारण कर ध्यान में बैठ गये और केवलज्ञान प्राप्त कर उसी भव में सिद्धत्व को प्राप्त हो गये। 'चित्वमत्कार' से साभार हितमेव न वेत्ति कश्चन भजतेऽन्यः खलु तत्र संशयम् । विपरीतरुचिः परो जगत्त्रिभिरज्ञान तमोभिराहतम् ॥ भावार्थ- जगत में तीन प्रकार के अज्ञानी हैं। पहले जो अपने हित को जानते ही नहीं। दूसरे वे जो हित को जानते हुए भी उसके विषय में संदेह करते हैं और तीसरे वे जो हित को अहित और अहित को हित जानते हैं। इस प्रकार सभी प्राणी इन तीन प्रकार के अज्ञानों से नष्ट हो जाते हैं ।। For Private & Personal Use Only मार्च 2003 जिनभाषित 11 www.jainelibrary.org

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