Book Title: Jinabhashita 2002 07 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 6
________________ हिन्दुत्व और जैन समाज दिनांक 4 अप्रैल के दैनिक जागरण के सम्पादकीय लेख 'हिन्दुत्व और जैन समाज में समाज की धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग की मान्यता का विरोध करते हुए उसे राजनीतिक, आर्थिक कारणों से प्रेरित तथा हिन्दुत्व विरोधी ही नहीं भारतीयता व मानवता विरोधी भी बताया गया है। इस संभावना का भी भय दिखाया गया है कि इस माँग से भारतीयता तो क्षतिग्रस्त होगी ही, जैन समाज भी दुर्बल होगा, उसके लिए ऐसी भी समस्याएँ पैदा हो सकती हैं जो उसके हित में नहीं होंगी। परोक्षरूप से जैन समाज को यह नेक सलाह दी गई है कि वह सर्वोच्च न्यायालय में दायर अपनी याचिका को, जिस पर आजकल सुनवाई चल रही है, वापस ले ले । इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि जैन समाज कोई जाति विशेष नहीं है, न ही वह आर्थिक, शैक्षिक व बौद्धिक दृष्टि से कोई पिछड़ा वर्ग है, जिसे अपने उत्थान के लिए आरक्षण जैसी सरकारी वैशाखियों की जरूरत पड़े। जैन समाज की प्रतिभाएँ अपने बलबूते पर ही प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में अपना उल्लेखनीय योगदान कर रही हैं। जैनधर्म, वैदिक धर्म तथा उसके आधुनिक रूप हिन्दू धर्म रूपी वट वृक्ष की कोई शाखा नहीं है। यह एक सर्वथा पृथक् एवं स्वतंत्र आत्मवादी धर्म है, जिसके उपास्य देव, उपासना पद्धति, धार्मिक क्रियायें, धार्मिक पर्व, दर्शन, सिद्धान्त, स्याद्वाद, हिन्दू धर्म से सर्वथा भिन्न और विशिष्ट हैं तथा जिसकी श्रमण संस्कृति की जड़ें प्राग्वैदिक हैं और सभ्यता के आदि युग में हुए प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव तक जाती हैं। जैन धर्मावलम्बियों की संख्या देश की कुल जनसंख्या का 1 प्रतिशत से भी कम है, जो पारसियों के बाद सबसे अधिक अल्पसंख्यक धार्मिक वर्ग है। मंडल कमीशन ने भी जैनों को अहिन्दू धार्मिक समुदाय में वर्गीकृत किया है। पूर्ण अहिंसक एवं शांतिप्रिय जैन समाज सदा ही सामाजिक समरसता का प्रबल पोषक रहा है। धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग की मान्यता की उसकी माँग के पीछे बृहद् हिन्दू समाज से अलगाव की कोई भावना कतई नहीं है। उस पर ये लांछन लगाना उपहासास्पद है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ की राज्य सरकारों ने जैन समाज की माँग के औचित्य को स्वीकार कर उसे धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग की मान्यता प्रदान कर दी है। उन प्रदेशों में जैन समाज का बृहद् हिन्दू समाज से अलगाव रंचमात्र नहीं हुआ है और न ही अलगाव होने की कोई संभावना है। समाज और धर्म दोनों के धरातल अलग-अलग हैं। भारत के संविधान के अनुच्छेद 29-30 में, जिनके अन्तर्गत जैन समाज को धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग की मान्यता दिये जाने की याचिका सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है, अल्पसंख्यकों को केवल उनकी विशिष्ट संस्कृति को अक्षुण्ण रखने तथा अपनी शिक्षा संस्थाओं के प्रबंधन में कुछ स्वतंत्रता की ही व्यवस्था है, जुलाई 2002 जिनभाषित 4 Jain Education International अजितप्रसाद जैन, लखनऊ किसी भी प्रकार के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक संरक्षण का कोई उल्लेख नहीं है। 'जागरण' जनमत में 47 प्रतिशत पाठकों का जैन समाज की माँग का समर्थन करना भी माँग के औचित्य को सिद्ध करता है। हम नीचे कुछ दृष्टान्त अति संक्षेप में दे रहे हैं जिनसे यह भलीभाँति स्पष्ट हो जायेगा कि जैन समाज धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग की मान्यता की आवश्यकता क्यों महसूस करता है। अभी गत 13 मार्च को जालोर दुर्ग (राजस्थान) के स्वर्णगिरि जैन तीर्थक्षेत्र में घुसकर धर्मद्वेषियों ने अकारण ही अनेक तीर्थंकर प्रतिमाओं को तोड़फोड़ डाला। राजस्थान के मारवाड़ अंचल में अनोप मंडल नाम का एक हिन्दू अतिवादियों का संगठन सक्रिय है, जो अपने को जैनधर्म का कट्टर विरोधी घोषित करने में गौरवान्वित महसूस करता है। दिनांक 14 सितम्बर 1997 को अनोप मंडल के नेतृत्व में 5000 की आतंकवादी भीड़ ने जालोर में अकारण ही जैनियों के एक उपाश्रय व तीन दुकानों को लूट लिया, एक कार को आग लगा दी, एक अन्य उपाश्रय व जैन छात्रावास में तोड़फोड़ की, जैन परिवारों के घरों में पत्थर फेंके तथा तीर्थक्षेत्र की मान्यता प्राप्त एक विशाल भव्य जैन मंदिर में घुसकर मूर्तियों को तोड़-फोड़ डाला । तीर्थक्षेत्र गलियाकोट (सागरवाड़ा राज.) में गुंडई तत्त्वों ने 700-800 वर्ष पुरानी बहुमूल्य कलाकृतियों को नष्ट किया तथा कुछ को लूट ले गए। राजस्थान में ही विहार कर रही एक साध्वी का अपहरण कर लिया गया तथा जैन मुनियों के विहार में बाधा डाली गई। जैनों के कुछ तीर्थक्षेत्रों पर पंडे-पुजारियों ने दबंगई से जबरन कब्जा करके उन्हें अपने धंधे का साधन बना लिया । अभी दो वर्ष पूर्व बदरीनाथ धाम में जिसके एक शिखर से प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने मोक्षगमन किया माना जाता है, जैन समुदाय की विधिवत खरीदी हुई अपनी जमीन में निर्माण कराई गई जैन धर्मशाला में जैन यात्रियों की उपासना हेतु भगवान् ऋषभदेव की भव्य पद्मासनस्थ प्रतिमा प्रतिष्ठित करने की योजना स्थानीय पंडों, पुजारियों, महंतों के प्रबल विरोध के कारण त्यागना पड़ी। एक संतजी ने आत्मदाह की तथा देशव्यापी आन्दोलन छेड़ने की धमकी दी तथा बदरीनाथ में जैन मंदिर के निर्वाण को अनैतिक करार दिया गया। ज्योतिपीठ के शंकराचार्य जैसे हिन्दू धर्म के शीर्ष गुरु ने इसे बदरीनाथ धाम की गरिमा व पवित्रता को क्षति करने वाला उपक्रम बताया, उत्तरांचल के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नित्यानंद स्वामी ने भी जोशीमठ में घोषणा कर डाली कि बदरीनाथ धाम में भगवान् बदरीनाथ के अलावा किसी भी वर्ग के मंदिर का निर्माण नहीं होने दिया जायेगा। हम नहीं समझ पा रहे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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