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आचार्य श्री विद्यासागरजी की पूजा
मुनि श्री योगसागर (वसन्ततिलका छन्द)
यों निर्जरा सतत संवर को लिये हैं। अध्यात्म के निलय में जिनका निवास,
ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः अष्ट कर्म विध्वंसनाय धूपं । शद्धोपयोगमय उज्ज्वल है प्रकाश।
सम्यक्त्व पुष्प यह संयम डाल पे है, वैराग्य का पवन ही बहता जहाँ है,
आस्था सुगन्ध मृदु आर्जव धर्म से है। विद्या-सागर सदा रमते वहाँ हैं।
पीयूष मोक्ष-फल तो इससे फलेगा, ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट्
ये फूल ही फल स्वरूप अहो ढलेगा। ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ___ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः मोक्ष फलप्राप्तये फलं। ॐ ह्री आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |
मैं भाव भक्ति स्तव वन्दन अर्चता हूँ, पीयूष सागर जहाँ लहरा रहा है,
आराध्य मंगलमयी गुरु गीत गाऊँ। ऐसा सुयोग अति दुर्लभ से मिला है।
ये अष्ट द्रव्य मम कर्म विनाशकारी ॥ श्रद्धा समेत इसमें डुबकी लगायें,
अल्हादरूप अपवर्ग सुलाभकारी॥ ये जन्म-मृत्यु भवरोग विलीन होयें।
ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः अनर्थ्यपदप्राप्तये अर्घम्। ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः जन्मजरामृत्यु विनाशानाय जलं।
दोहा श्रद्धामयी सुखद चन्दन लेप द्वारा,
ज्ञान सरोवर में खिला विद्या पुष्प सरोज। आत्मीय दाह अति तीव्र उसे निवारा।
धर्म-ग्रन्थ की महक में, भक्त भ्रमर को मौज ॥ है दीप्तिमान तव गात्र सुशोभता है,
जयमाला मानो सुधाकर सुधा बरसा रहा है।
निर्ग्रन्थ सन्त भगवन्त स्वरूपता है, ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः भवआतापविनाशानाय चन्दनं ।।
निर्भीक नि:स्पृह विशाल उदारता है। त्रैयोग योगमय चिन्मयकी प्रतीति,
ये कर्ण-धार भवसिन्धु उबारते हैं, आत्मा निजानुभव में रममान होती।
निर्लिप्त पंकज सरोवर ज्ञान में हैं। ये पाद-पद्म द्वय की शरणा सु-लेता,
है पूज्य नाम तव ही प्रथमानुयोग, भाई अनन्त सुख अक्षय रूप होता।
जो क्षेत्र में विचरते करणानुयोग ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः अक्षय पद प्राप्तये अक्षतं ।।
चरित्र ही परम है चरणानुयोग, है कामदेव सम सुन्दर कान्ति काया,
सत्यार्थ चिन्तन यथार्थ द्रव्यानुयोग। औ शक्ति है मदन के मद को हराया।
आश्चर्य है समय-सार सजीव पाया, है वीतराग बल ही सब में बलाढ्य,
श्री ज्ञानसागर मुनीन्द्र इसे रचाया। मैं क्या कहूँ सकल सन्त कहें गुणाढ्य ॥
चारित्र-पत्र पर ही रचना हुई है, ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः कामबाण विनाशनाय पुष्पं ।।
बेजोड़ है अतुलनीय अपूर्वता है। हो कर्म की निरजरा इसमें सुलग्न, हैं निर्विकल्प समता-रस में निमग्न ।
मिश्री घुली मधुर दुग्ध क्षुधा मिटाये, तो भूख प्यास फिर क्यों किसको सताये,
जो शान्ति-वर्धक निरामयता बढ़ाये।
त्यों भारती तव अलौकिक पुण्यशाली, सच्चा मुमुक्षु विजयी अघ को नशाये॥ ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः क्षुधारोग विनाशनाय नेवेद्यं।
आबाल-वृद्ध मनमोहक शान्तिवाली॥ निर्द्वद्व निर्मद विराग अकंप ज्योति,
यो दत्तचित्त गणपोषण कार्यता में, धारे सुजीवन अहो बन जाये मोती।
संपूर्ण संघ अनुशासनशीलता में। आलोक पुंज रवि की शरणा मिली है,
है बालब्रह्म सब शिष्य सुशोभते हैं, अज्ञान का तम विनाश अवश्य ही है।
जो ज्ञान-ध्यान-तप में लवनीनता है। ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः मोहांधकार विनाशनाय दीपं
ॐ ह्रीं आचार्य श्री विद्यासागरेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये महाय॑म्। कोई प्रयोजन किसी की नहीं उपेक्षा,
दोहा ना हैं किसी जगत से करते अपेक्षा।
विशाल विद्या सिन्धु में, भरा क्षीर सा नीर। निर्मोह ज्ञान तप संयम ध्यान में है,
स्नान करो इस तीर्थ में, बनो सभी अतिवीर ॥ 20 जुलाई 2002 जिनभाषित -
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