Book Title: Jinabhashita 2002 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी द्वारा कथित निम्न गाथा को | वे सद्गुणों के भण्डार हैं। प्रशान्त, गम्भार, उदारचेता, हृदयङ्गम कर तदनुरूप जीवन पथ को बढ़ा रहे हैं सिद्धसारस्वत, हितमित प्रियभाषी, पर हित निरत, स्याद्वादविद्या चारित्रं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिदिट्ठो। के अधिपति आचार्य समन्तभद्र, मट्टाकलंक देव, जिनसेन, विद्यानन्दि मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥7॥ | आदि आचार्यों सदृश जैन शासन के अनुपम द्योतक, प्रभावक और प्रवचनसार | प्रसारक आचार्य श्री विद्यासागज महाराज सम्प्रति अर्द्ध शत मुनि चारित्र वास्तव में धर्म है और जो धर्म है, वह साम्य है, | दीक्षाएँ और सार्धशत अर्यिका दीक्षाएँ प्रदान कर लोक में दिगम्बरत्व ऐसा जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा गया है। साम्य ही यथार्थतः मोह और | का जो जयघोष किया है, उसका वर्णन करने के लिए शब्द क्षोभरहित आत्मा का परिणाम है। सामर्थ्य हीन हैं। चारित्र की प्राप्ति ही मानव-जीवन की सार्थकता है। इसके आचार्यश्री में ऐसी विलक्षणता एवं अद्भुद्ता है जो दर्शकों द्वारा ही कषायों का उपशमन किया जा सकता है। इस चिन्तन ने | को सहज ही आकर्षित कर लेती है। वे इनके श्रीचरणों में रहकर ही आचार्य श्री को पञ्चाचार के सम्यक् परिपालन की प्रशस्त | अपने जीवन को व्यतीत करना चाहते हैं। इसी आकर्षणशक्ति के प्रेरणा प्रदान की है। चारित्र की महिमा प्रायः सभी आरातीय | फलस्वरूप सैकड़ों युवा-युवतियाँ आपके चरणों में बैठकर ज्ञान आचार्यों ने गायी है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने भी महत्ता । की आराधना कर रहे हैं और स्व-पर कल्याणकारी दैगम्बरी दीक्षा बतलायी है अंगीकार कर जिनधर्म की महिमा बढ़ा रहे हैं। चारित्रं भवति यतः समस्त सावधयोगपरिहरणात्। विचारों में दृढ़ता, अन्त:करण में भव्य करुणा, चिन्तनपूर्ण सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत्॥ | धार्मिक जीवन, आत्मसाधना, शास्त्रानुकूल चर्या आचार्यश्री का कारण यह है कि समस्त पाप युक्त योगों के दूर करने से | समग्र व्यक्तित्व है और युगों-युगों तक तत्त्वों का बोध कराने वाला चारित्र होता है, वह चारित्र समस्त कषायों से रहित होता है, | संयम-साधनों का सत्शिक्षण देने वाला, आगम अध्यात्म व्याकरणनिर्मल होता है, राग-द्वेष रहित वीतराग होता है, वह चारित्र आत्मा | साहित्य, धर्म-दर्शन का निरूपक समग्र कृतित्व है। का परिणाम है। अनुपमेय व्यक्तित्व और कृतित्व वाले आचार्यश्री विद्यासागर आत्म परिणाम रूप चारित्र के अधिकारी आप जैसे विरले | जी पुरातन श्रमण परम्परा के उन्नायक, पञ्चाचारपरिपालक, सन्त ही हैं क्योंकि षट्त्रिंशद्गुणमण्डित परम वीतरागी सन्त हैं। वाल्मीकि के शब्दों शैले-शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे गजे। साधवो नहिं सर्वत्र, चन्दनं न वने वने ॥ "न परः पापमादत्ते परेषां पापकर्मणाम्। प्रत्येक पर्वत में माणिक्य नहीं होता। प्रत्येक हाथी के समयो रक्षितव्यस्तु सन्तश्चारित्र भूषणाः॥" मस्तक में मुक्ता नहीं है। प्रत्येक वन में चन्दन नहीं है, उसी प्रकार आचार्यश्री सच्चे सन्त हैं। सर्वत्र साधु नहीं मिलते। सन्त स्वयं सन्मार्ग पर चलते हुए दूसरों को सन्मार्ग पर साधु से तात्पर्य साधुता से है। आज साधुओं की अधिकता | लेकर चलते हैं। आचार्यश्री ने वर्तमान में पनप रही विकृतियों को है, किन्तु आचार्यश्री-जैसी साधुता विरले पुरुषों में ही पायी जाती रोककर जिनेन्द्र महाप्रभु के मार्ग को स्वयं अपनाया है और संसार है। आप सच्चे साधक हैं। निरन्तर ज्ञान,ध्यान, तप में लवलीन सागर में निमग्नजनों को उससे निकालकर प्रशस्त मोक्षमार्ग पर रहने वाले परम तपस्वी हैं। रत्नत्रय के मूर्तिमान स्वरूप आपके | बढ़ाया है, बढ़ा रहे हैं। यह जगत् आचार्यश्री के उपकार से सतत जितने भी गुण वर्णित किए जाएँ वे सब थोड़े होंगे। इनके किञ्चित् उपकृत रहेगा, वे इसी प्रकार युग-युग तक जिनधर्म के निमित्त गुणों का कथन आत्मतोष के लिए हो सकता है, क्योंकि गुणनिधि बने रहें। 24/32, गाँधी रोड, के गुणों को प्रकट करना असंभव ही है। बड़ौत-250611 उ.प्र. में विद्याधर से विद्यासागर बन गए राजचन्द्र जैन 'राजेश' वे उपमेय की उपमाओं से उपमातीत बन गए। वे जैनधर्म की आन, बान और शान बन गए। वे स्वयं दया और करुणा की मिसाल बन गए। वे विद्याधर थे, विद्याधर से विद्यासागर बन गए। दि. जैन मन्दिर टी.टी. नगर, भोपाल 14 जुलाई 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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