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आत्मान्वेषी : आचार्य श्री विद्यासागर
जीवन-परिचय एवं वचनामृत
कर्नाटक प्रान्त के बेलगाम जिले में सदलगा नाम का एक गाँव है। आपका जन्म इसी सदलगा गाँव के निवासी श्री मल्लप्पाजी अष्टगे और श्रीमतीजी अष्टगे के परिवार में 10 अक्टूबर 1946 को शरद पूर्णिमा के दिन हुआ। आपका बचपन का नाम विद्याधर था । आपका परिवार धन-धान्य से सम्पन्न था। आपके पिता श्री मल्लप्पा जी अष्टगे अत्यन्त कर्मठ और ईमानदार कृषक थे, जो अपनी निजी भूमि में गन्ना, मूंगफली आदि की खेती किया करते थे। आपको धार्मिक संस्कार अपने माता-पिता से मिले जिनमन्दिर जाना, जिनवाणी का अध्ययन करना, मुनिजनों की सेवा करना, दानपुण्य आदि धर्म कार्यों में सदा तत्पर रहना यह आपके मातपिता की सहज दिनचर्या थी। आपकी माता बड़ी सरल स्वभावी और श्रद्धालु महिला थीं। उनका अधिकांश समय व्रत, नियम और पूजा-पाठ में व्यतीत होता था। आपके जन्म के पूर्व आपकी माँ ने स्वप्न में दो ऋद्धिधारी मुनियों को आकाश मार्ग से आते देखा और अपने हाथों से उन्हें आहार भी दिया। मराठी में एक कहावत है'मनी बसे स्वप्ने दिसे' मन में जैसे भाव होते हैं वैसा ही स्वप्न दिखाई देता है। आपको पाकर आपकी माँ की भावनाएँ साकार हो गईं ।
विद्याध्ययन के प्रति आपकी रुचि बचपन से ही थी । घर से स्कूल तक तीन मील दूर आप कंधे पर बस्ता डाले पैदल ही चले जाया करते थे। आपने प्राथमिक और उच्च स्कूली शिक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की। स्कूल से अवकाश मिलने पर आप घर में रहकर चौबीस तीर्थंकरों के नाम और 'भक्तामर' के श्लोक कण्ठस्थ किया करते थे। प्रतिदिन रात को भगवान् के दर्शन करके घर लौटने पर आप अपने छोटे भाई-बहनों को धर्म की अच्छीअच्छी बातें सुनाया करते थे। अपने मधुर कंठ से स्तुति गाया करते थे। अपने दोनों छोटे भाइयों को गोद में लेकर आपने उन्हें सदा यही समझाया कि जीवन में सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र्य रूपी तीन रत्नों को प्राप्त करना ही श्रेष्ठ है ।
आपको चित्रांकन का शौक था। रंगों का डिब्बा और तूलिका लेकर आप घर के किसी कोने में बैठकर बड़े जतन से अपनी कल्पना को अंकित करते थे। आपकी एकाग्रता, संवेदनशीलता कला-प्रवणता देखते ही बनती थी।
यौवन की देहरी पर पैर रखते ही आपका मन विषयवासना से दूर रहकर समुद्र की अथाह जलराशि का आलिंगन करने और इस पार से उस पार जाने का हुआ करता था। यह शायद आपके कोमल हृदय में लहराते करुणा के अपार सागर की पुकार थी जो जीवन में साकार होती चली गई। आज आप भवसागर
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मुनि श्री क्षमासागर से पार उतारने वाले महानाविक हैं। लगभग नौ-दस बरस की उम्र में जब आप माता-पिता के साथ शेडवाल ग्राम में विराजे चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज के दर्शन करने गए थे, तब आपके निश्छल निर्मल मन में वीतरागता के प्रति सहज लगाव उमड़ पड़ा था। जो दिनोंदिन निरन्तर साधुसंगति पाकर बढ़ता ही चला गया। आपने बीस बरस की युवा अवस्था में संसार से विरक्त होकर गृह त्याग कर दिया और गुरु ज्ञानसागर जी मुनिराज के चरणों में रहकर जैनदर्शन, न्याय, व्याकरण, साहित्य और अध्यात्म का ज्ञान अर्जित किया। अल्प वय में ही आपकी उच्च साधना और ज्ञान को देखकर गुरु ज्ञानसागरजी ने राजस्थान के अजमेर नगर में 30 जून 1968 को आपको दिगम्बर- मुनि दीक्षा प्रदान की। आप मुनिश्री विद्यासागर जी के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
आप संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, अँग्रेजी, मराठी, कन्नड़ आदि अनेक भाषाओं के जानकार हैं। आपने गुरुकृपा, आत्मनिष्ठा और सतत साधना के बल पर परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करने वाली आत्मविद्या को भी प्राप्त कर लिया है। वर्तमान में आप अपने विशाल मुनिसंघ के संघ-नायक / आचार्य हैं। आपकी कल्याणवाणी में आत्मानुभूति की झलक स्पष्ट दिखाई देती है आपके चिन्तन में चेतना की ऊँचाई और साधना की गहराई है। आपकी मधुर मुस्कान में आत्मा की सुगंध और सौंदर्य दोनों हैं। आपकी वीतराग - छबि से करुणा निरन्तर झरती रहती है। आपका समूचा व्यक्तित्व सूरज की रोशनी की तरह उज्ज्वल और तेजस्वी है।
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आप अपने इन्द्रिय और मन पर विजय प्राप्त करने वाले निष्काम - साधक हैं। आप अहिंसा, सत्य, अचौर्य, बह्मचर्य और अपिरग्रह की जीवन्त मूर्ति हैं। एक गहरी आत्मतृप्ति आपके चेहरे पर सदा बनी रहती है। भोजन में लवण का त्याग कर देने पर भी आपका भीतरी लावण्य अद्भुत है। मधुर रस से विरक्त होते हुए भी आपमें असीम माधुर्य है। स्निग्ध पदार्थों का त्याग होते हुए भी आपकी आंतरिक स्निग्धता देखते ही बनती है। समस्त फलों का त्याग करके मानो आपका जीवन स्वयं फलवान् हो गया है।
आप समुद्र की तरह अपार और अथाह हैं। जैसे सागर की विस्तृत असीम जलराशि हमें बरबस अपनी ओर आकृष्ट करती है और मानो स्वयं सागर होने का निमंत्रण देती है, ऐसे ही आपका सामीप्य आत्मानुभूति के महासागर में प्रवेश करने का आमंत्रण देता है। जैसे सागर में कितनी ही नदियाँ आकर विलीन हो जाती हैं और सागर कभी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता ऐसे ही आपके चरणों में कितनी ही आत्माएँ समर्पित होती जाती हैं, पर
-जुलाई 2002 जिनभाषित
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