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रहती है। आचार्यकवि ने मुहावरों का सटीक प्रयोग करके कथन
रसना कब रस चाहती है? को काव्यात्मक चारुत्व से मंडित किया है तथा अभिव्यक्ति को
नासा गन्ध को याद नहीं करती। तीक्ष्ण बनाया है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं
स्पर्श की प्रतीक्षा स्पर्शा कब करती है? अरे मौन! सुन ले जरा
स्वर के अभाव में ज्वर कब चढ़ता है श्रवणा को? कोरी आस्था की बात मत कर तू
(पृ. 328) आस्था से बात कर ले जरा। (पृ. 121)
अभिव्यंजक अलंकार यहाँ 'की बात मत कर' और 'से बात कर लें' इन दो कवि ने भावों की कलात्मक अभिव्यंजना के लिए जिन मुहावरों ने 'कथनी' की निरर्थकता और 'करनी' की सार्थकता | अलंकारों का प्रयोग किया है, उनमें अत्यन्त स्वाभाविकता है, वे की अभिव्यंजना को सौन्दर्य के उत्कर्ष पर पहुँचा दिया है। बलपूर्वक आरोपित किये गये प्रतीत नहीं होते। वस्तु के शिल्पी का दाहिना चरण
स्वरूपवैशिष्ट्य को सम्यग्रूपेण व्यंजित करते हैं। यथामंगलाचरण करता है। (पृ. 126)
सिन्धु में बिन्दु सा कार्य आरम्भ करने के भाव की अभिव्यक्ति मंगलाचरण
राहु के गाल में समाहित हुआ भास्कर।(पृ. 238) करने के मुहावरे से कितनी रमणीय बन गई है!
सिन्धु में बिन्दु की उपमा से राहु की विशालकायता और मानव खून उबलने लगता है
उसके समक्ष सूर्य की लघुता का द्योतन औचित्यपूर्ण है। शान्त माहौल खौलने लगता है। (पृ. 131)
निम्नलिखित उक्ति में प्रयुक्त उत्प्रेक्षा द्वारा कुम्भ की बाह्य ये मुहावरे जन-आक्रोश तथा सामाजिक अशान्ति की | कालिमा का वर्णन बड़े रोचक ढंग से किया गया हैपराकाष्ठा को अभिव्यक्ति देते हुए उक्ति को चारुत्व से मण्डित
आज अबा से बाहर आया है कुम्भ करते हैं।
कृष्ण की काया सी नीलिमा फूट रही है उससे प्रभाकर का प्रवचन हृदय को छू गया
ऐसा प्रतीत हो रहा है कि छूमन्तर हो गया भाव का वैपरीत्य । (पृ. 207)
भीतरी दोषसमूह सब 'हृदय को छू गया' मुहावरा प्रवचन की प्रभावशालिता
जल-जलकर बाहर आ गये हों। (पृ. 298-299) तथा 'छूमन्तर हो गया' मुहावरा विपरीत बुद्धि के एकदम दूर हो शब्दालंकारों में यमक के एक-दो सुन्दर उदाहरण हैं, जाने के भाव को कितने मनोहर ढंग से सम्प्रेषित करता है! जिनमें स्वाभाविकता के कारण अर्थवैभिन्न्यगत वैचित्र्य रोचक बन जब आँखें आती हैं तब दुःख देती हैं
पड़ा हैजब आँखें जाती हैं तब दुःख देती हैं
कभी हार से सम्मान हुआ इसका जब आँखें लगती हैं तब दुःख देती है। (पृ. 359-360)
कभी हार से अपमान हुआ इसका। (पृ. 145-146) यहाँ भी मुहावरों के द्वारा अभिव्यक्ति की हृदयाह्लादकता
प्रथम 'हार' का अर्थ है 'फूलों का हार', द्वितीय का उत्कर्ष पर पहुँच गई है।
'पराजय'। औचित्यपूर्ण उपचारवक्रता
ललित वर्ण विन्यास अचेतन पर चेतन के, चेतन पर अचेतन के, मूर्त पर अमूर्त
संगीतात्मकता भी काव्य का एक गुण है। ललित के, अमूर्त पर मूर्त के, मानव पर तिर्यंचादि के, तिर्यंचादि पर मानव
वर्णविन्यास के द्वारा इसका आविर्भाव होता है। सन्तकवि इसके के धर्म का आरोपण उपचारवक्रता कहलाता है। यह वस्तु के
अत्यधिक प्रेमी हैं । वर्णों की आवृत्ति के द्वारा उन्होंने संगीतात्मक गुणोत्कर्ष, भावों के अतिशय, उत्कटता, तीक्ष्णता, घटनाओं और
सौन्दर्य उत्पन्न करने का बहुश: प्रयत्न किया है। कहीं-कहीं इसके परिस्थितियों की गंभीरता, चरित्र की उत्कृष्टता या निकृष्टता आदि
सुन्दर उदाहरण मिलते हैं। यथा की व्यंजना के लिए किया जाता है। इससे कथन मर्मस्पर्शी एवं
अहित में हित और हित में अहित रमणीय बन जाता है। मूकमाटी के कवि ने उपचारवक्रता का
निहित सा लगा इसे। औचित्यपूर्ण प्रयोग किया है, जिससे काव्यात्मक चारुत्व की सृष्टि हुई है। कुछ नमूने प्रस्तुत हैंभय को भयभीत के रूप में पाया।
तन में तन का चिरन्तन नर्तन है। विस्मय को बहुत विस्मय हो आया। (पृ. 138) जो अपरस का परस करता है
काया तो काया है,जड़ की छाया-माया है। क्या वह परस का परस चाहेगा? (पृ. 139) (अपरस-स्पर्श से परे, चिन्मय, परस-अनुभव)
खरा भी अखरा है सदा। (परस-स्पर्शमय, पुद्गल)
-जुलाई 2002 जिनभाषित १
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