Book Title: Jinabhashita 2002 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 12
________________ श्वास का विश्वास नहीं अब। कब से चल रहा है संगीत-गीत यह? कितना काल अतीत में व्यतीत हुआ, पता तो, बता दो। नग्न अपने में मग्न बन गये। भीतरी भाग भीगे नहीं अभी तक रसात्मकता दोनों बहरे अंग रहे महाकवि ने विभिन्न रसों के पुट से काव्य में कहीं-कहीं कहाँ हुए हरे-भरे? (पृ. 144) रस भरने का भी प्रयत्न किया है। आरंभ में ही सूर्य और प्राची, इष्ट और अनिष्ट में समभाव की अनुभूति का यह वर्णन प्रभाकर और कुमुदिनी, चन्द्रमा और ताराओं पर नायक-नायिका शान्तरस का अप्रतिम उदाहरण हैके व्यापार का आरोप कर श्रृंगार रस की व्यंजना की है। अन्तिम सुख के बिन्दु से ऊब गया था यह खण्ड में भी निम्न पंक्तियाँ शृंगाररस की सामग्री प्रस्तुत करती हैं दुःख के सिन्धु में डूब गया था यह। बाल भानु की भास्वर आभा कभी हार से सम्मान हुआ इसका निरन्तर उठती चंचल लहरों में कभी हार से अपमान हुआ इसका। उलझती हुई सी लगती है कहीं कुछ मिलने का लोभ मिला इसे कि गुलाबी साड़ी पहने कहीं कुछ मिटने का क्षोभ मिला इसे। मदवती अबला सी स्नान करती-करती कहीं सगा मिला, कहीं दगा लज्जावश सकुचा रही है। (पृ. 479) भटकता रहा अभागा यह। प्रस्तुत अंश वात्सल्यरस के विभावों और अनुभावों से परन्तु आज सब वैषम्य मिट गये हैं परिपूर्ण है जब से मिला यह मेरा संगी संगीत। (पृ.146) और देखों ने माँ की उदारता, परोपकारिता आहार-ग्रहण के समय मुनिराज के वीतरागस्वरूप का अपने वक्षस्थल पर युगों-युगों से, चिर से जो निरूपण किया गया है (पृष्ठ 326) वह भी शान्तरस का दुग्ध से भरे दो कलश ले खड़ी है। आस्वादन कराता है। आतंकवादियों के प्रकरण में रौद्र रस का क्षुधा-तृषा-पीड़ित शिशुओं का पालन करती रहती है | प्रसंग भी है। कहीं बीभत्स और वीर की भी झलक मिलती है। और भयभीतों को, सुख से रीतों को | मनौवैज्ञानिक तथ्यों का उद्घाटन गुपचुप हृदय से चिपका लेती है, पुचकारती हुई | महाकाव्य में कई जगह मनौवैज्ञानिक तथ्यों का उद्घाटन (पृ. 472) | किया गया है। कंकरों के प्रसंग में 'स्वजाति१रतिक्रमा' तथ्य भक्तिरस का अतिरेक निम्न पंक्तियों से छलकता है- | उन्मीलित हुआ है। वडवानल का प्रकरण इस तथ्य को उद्घाटित एक बार और गुरुचरणों में सेठ ने प्रणिपात किया। करता है कि आवश्यकता पड़ने पर सज्जन को भी उग्रता का लौटने का उपक्रम हुआ, पर तन टूटने लगा। आश्रय लेना पड़ता है। निम्न पंक्तियाँ भी एक महान् मनोवैज्ञानिक लोचन सजल हो गये,रोका, पर रुक न सका रुदन। । सत्य पर प्रकाश डालती हैंफूट-फूट कर रोने लगा, सीमा में रहना असंयमी का काम नहीं, पुण्यप्रद पूज्यपदों में लोट-पोट होने लगा।(पृ. 346) जितना मना किया जाता है आहारदान के प्रकरण में अपार श्रद्धा के पात्र मुनि को उतना मनमाना होता है, पाल्य दशा में। आहार देने के लिए श्रावकों की आतुरता का जो वर्णन किया गया त्याज्य का तजना, भाज्य का भजना संभव नहीं बाल्य दशा में। है वह भक्तिरस से ओत-प्रोत है। तथापि जो पलता है, बस, बलात् भीति के कारण। संसार की निस्सारता, जीवन की क्षणभंगुरता और परमात्म (पृ. 341) तत्त्व की सारभूतता का वर्णन या इनकी अनुभूति का वर्णन शान्तरस पूर्ववर्णित सभी सूक्तियाँ मनोवैज्ञानिक तथ्यों का साक्षात्कार के विभाव हैं। इनके वर्णन से पाठक के मन में सांसारिक विषयों कराती हैं। के प्रति अनाकर्षण और अरुचि का भाव उद्बुद्ध होता है, जिससे इस प्रकार भावों की कलात्मक अभिव्यंजना, सटीक मुहावरे, औचित्यपूर्ण उपचारवक्रता, अभिव्यंजक अलंकार इच्छानिरोधजन्य शमभाव की अनुभूति होती है। यही शान्तरस का ललितवर्णविन्यास, रसात्मकता, पथप्रदर्शक सूक्तिरत्न तथा आस्वादन है। प्रस्तुत काव्य में इसके कई जगह दर्शन होते हैं। मनौवैज्ञानिक तथ्यों का उद्घाटन, इन गुणों से 'मूकमाटी' महाकाव्य श्रोत्रेन्द्रिय के विषय की निस्सारता के बोध की यह अभिव्यक्ति ने अपने को उत्कृष्ट काव्यों की पंक्ति में आसीन किया है। यह एक शान्तरस की व्यंजना करती है महामुनि के भीतर विराजमान महाकवि की देदीप्यमान प्रतिभा का ओ श्रवण! कितनी बार श्रवण किया स्वर का? अनूठा निदर्शन है। ओ मनोरमा! कितनी बार स्मरण किया स्वर का? रतनचन्द्र जैन 10 जुलाई 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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