Book Title: Jinabhashita 2002 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 5
________________ समाधियों का मौसम आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डकश्रावकाचार ग्रंथ में 12 दिसम्बर 2001 को धरियावद (राजस्थान) में पूज्य कहा है कि धर्मरूपी अमृत का पान करने वाला निरतिचार आर्यिका विपुलमतीजी ने पूज्य आचार्य वर्धमानसागर जी के सल्लेखनाधारी जीव सब दुखों से रहित सुख के समुद्र स्वरूप मोक्ष संघसान्निध्य में जागरूक रहते हुए शांतिपूर्वक समाधिमरण किया। को प्राप्त करता है या बहुत समय में समाप्त होने वाली अहमिन्द्र गृहस्थ अवस्था में पूज्य आचार्य भरतसागर जी (धार) की माँ आदि की सुख परंपरा का अनुभव करता है। विपुलमतीजी ने इस चातुर्मास के पूर्व ही आचार्य वर्धमानसागर जी निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम्। से समाधि की याचना की थी। आचार्य महाराज ने उन्हें दो वर्ष की नि:पिबति पीतधर्मा सर्वे,ःखैरनालीढः।।130।। सल्लेखना का व्रत दिया था। वे तभी से एक दिन के अंतर से आहार आचार्य देवसेन स्वामी ने आराधनासार में लिखा है कि विधि के लिये उठती थीं और आहार में केवल मुनक्का पानी ही लेती थीं। पूर्वक सल्लेखना धारण करने वाला सात-आठ भव में नियम से मोक्ष आपने भगवान महावीर स्वामी के पच्चीससौवें निर्वाणोत्सव के को प्राप्त होता है। अवसर पर दिल्ली में पूज्य आचार्य धर्मसागर जी से आर्यिका दीक्षा क्षपक की वैयावृत्ति करने को और उनके दर्शन को भी आचार्यों प्राप्त की थी। उपवास और जाप आपकी साधना के प्रमुख अंग थे। ने पुण्य बंध का कारण कहा है। हमारे पूर्वजों को तो शायद ही कभी 28 दिसम्बर 2001 को धरियावद में ही आचार्य वर्धमानसागर ऐसा उत्कृष्ट समाधिमरण देखने को मिलता रहा होगा, परंतु हम ऐसे | जी के संघ सान्निध्य में एक और समाधि हुई पूज्य आर्यिका भाग्यशाली हैं कि जगह-जगह समाधिमरण देखकर अपने मरण के सुपार्श्वमतीजी की, जो आचार्य विमलसागर जी के संघ की थी और लिये भी प्रेरणा ले सकते हैं। इन्होंने भी इस चातुर्मास के पूर्व ही आचार्य वर्धमानसागर जी के अभी 28 नवम्बर 2001 से 22 जनवरी 2002 तक का सान्निध्य में आकर समर्पणपूर्वक उन्हें निर्यापकाचार्य बनाया था। समय तो मानो समाधियों का मौसम ही था। इन 56 दिनों में दो | सुपार्श्वमती जी ने 26 वर्ष पूर्व आचार्य पार्श्वसागर जी से दीक्षा ली मुनिराजों, पाँच आर्यिका माताओं ने समाधिमरण के साथ अपनी पर्याय थी, आपने बारह वर्ष की उत्कृष्ट सल्लेखना का व्रत लिया हुआ था का समापन किया। साथ ही इसी अवधि में तीन ऐसी धर्मनिष्ठ ब्र. और उसका अंतिम वर्ष चल रहा था। माताजी को तीर्थ वन्दना में बहिनों ने भी समाधिमरण किया, जिन्हें अंत समय में पिच्छिका प्रदान बहुत रुचि थी। आपने श्री सम्मेदशिखरजी की 148 वन्दनाएँ की थीं। कर दी गई थी। गिरनारजी आदि क्षेत्रों की भी कई वन्दनाएँ की थीं। उपवास भी बहुत ___ उक्त अवधि के पूर्व 27 अगस्त 2001 को सीकर में पूज्य | करती थीं। आप चातुर्मास में आहार में केवल सेवफल और पानी ले आर्यिका विद्यामती जी की समाधि हो चुकी थी। आप गणिनीआर्यिका रही थीं। सुपार्श्वमतीजी के संघ की थीं और उन्हीं के साथ सीकर में चातुर्मास 21 जनवरी 2002 को सनावद में पूज्य आचार्य वर्धमानकर रही थीं। आपने 1.11.1960 को पूज्य आचार्य शिवसागर जी | सागरजी के शिष्य मुनि श्री चारित्रसागर जी ने समाधिमरण पूर्वक महाराज से आर्यिका दीक्षा ली थी। आपने अस्वस्थ होने पर क्रमशः स्वर्गारोहण किया। स्वाध्यायप्रिय चारित्रसागरजी महाराज सरलहृदय सभी प्रकार के आहार का त्याग करते हुए यम सल्लेखना ली थी। और निष्ठावान साधक थे। गृहस्थ अवस्था में पूज्य वर्धमानसागरजी 28 नवम्बर 2001 को नरवाली (राजस्थान) में पूज्य आचार्य के चाचा रहे चारित्रसागर जी ने सन् 1993 में गोमटेश्वर बाहुबली अभिनदनसागर जी के सघस्थ मुनिश्री अमेयसागर जी की समाधि हुई। | स्वामी के बारह वर्षीय मस्तकाभिषेक महोत्सव के अवसर पर सनावद में जन्मे श्री अमेयसागर जी ने सन् 1997 में कचनेर में श्रवणबेलगोला में पूज्य आचार्य वर्धमानसागर जी से मुनि दीक्षा ग्रहण आचार्य रयणसागर जी से दीक्षा प्राप्त की थी। 29 नवम्बर 2001 की थी। को खिमलासा (सागर) में पूज्य आचार्य विद्यासागर जी से दीक्षित 22 जनवरी 2002 को प्रातः नन्दनवन (धरियावद) में विदुषी विदुषी आर्यिका जिनमती जी ने समाधिमरण पूर्वक अपनी पर्याय पूर्ण आर्यिका पूज्य विशुद्धमति माताजी ने अपनी बारहवर्षीय सल्लेखना की। आपने 10 फरवरी 1987 को सिद्धक्षेत्र नैनागिरि में पंचकल्याणक की अवधि पूरी करके पूज्य आचार्य वर्धमानसागर जी महाराज के संघ के अवसर पर आचार्यश्री से आर्यिका दीक्षा प्राप्त की थी। आपका एवं गणिनी आर्यिका सुपार्श्वमतीजी के संघ-सान्निध्य में अपनी कठोर जन्म 8.10.63 को शाहगढ़ में हुआ था। संयमसाधना के भव्य भवन पर समाधि रूपी उत्तुंग शिखर का निर्माण 11 दिसम्बर 2001 को भोपाल में आचार्य विद्यासागर जी किया। माताजी ने 14 अगस्त 1964 को मोक्षसप्तमी के दिन की ही शिष्या पूज्य आर्यिका एकत्वमति जी ने सल्लेखनापूर्वक अपनी अतिशय क्षेत्र पपौराजी में पूज्य आचार्य शिवसागर जी से आर्यिका देह विसर्जित की। 15 जनवरी 1952 को रायसेन में जन्मी तथा दीक्षा ग्रहण की थी। जिनवाणी की अपूर्व सेवा करने वाली, तिलोय 25 जनवरी 1993 को नन्दीश्वरद्वीप मढ़ियाजी जबलपुर के पण्णत्ती, त्रिलोकसार जैसे ग्रंथों की टीकाक: माताजी ने 16 जनवरी पंचकल्याणक अवसर पर आचार्यश्री से दीक्षा लेने वाली आर्यिका 1990 को पूरी तरह स्वस्थ अवस्था में पूज्य आचार्य अजितसागर एकत्वमतीजी अस्वस्थता के बाद भी अपने संयम की साधना में अंत जी महाराज से बारह वर्ष की सल्लेखना का व्रत ले लिया था। आचार्य तक जागरूक रहीं। अजितसागर जी की समाधि के बाद उस परंपरा के आचार्य पूज्य - फरवरी 2002 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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