Book Title: Jinabhashita 2002 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 8
________________ इसके उपरान्त भी डॉ. भारती द्वारा अपने इस आलेख में सुझाये | अच्छा हुआ कि इस विवाद को बल मिला है और जनमानस के सामने गए उपायों को व्यवहार में लाएं, अपना आचरण उनके अनुकूल बनायें सत्य आ रहा है। साथ ही तोड़-मरोड़कर अपनी ही बात को पुष्ट करने तो हमारा धार्मिक व सामाजिक ढाँचा पुन: सुधर सकता है और अपनी का मानस भी जनता में आ रहा है। भविष्य उज्ज्वल है। प्रतिष्ठा तथा निष्ठा को हिमालय की बुलंदी तक ले जा सकता है। भरत कुमार काला डॉ. भारती ने लेख के माध्यम से मंदिरों की भूमिका में बदलाव 'जिनभाषित' मानव मन का दर्पण है, जिसमें अपना ही का जो पक्ष रखा है वह वर्तमान अवस्था का शत-प्रतिशत सही चित्रण प्रतिबिम्ब नहीं बल्कि समाज, देश और जागरूक विद्वानों का सही है जो सामाजिक भावना को बुरी तरह तिरोहित कर रहा है। विचार प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। तो और भी बहुत आ रहे हैं, किन्तु उन्हें यहीं विराम देते हुए लेखक | आप जो असरदार आलेख और पाठकों की प्रखर प्रतिक्रियाएँ व सम्पादक दोनों को साधुवाद एवं 'जिनभाषित' एक उच्चस्तरीय प्रकाशित करते हैं, उसके लिये बहुत-बहुत धन्यवाद एवं बधाई। दिस. पत्रिका के लिये हार्दिक शुभकामनाएँ। 2001 के सम्पादकीय ने तो मेरे मन की बहुत सारी शंकाएँ निर्मूल ___ डॉ. विमलचन्द जैन | कर दीं। यह एकदम सत्य है “आर्यिका माता पूज्य, मुनि परमपूज्य।" एलआईजी-236, कोटरा सुल्तानाबाद, | इस पत्रिका का कवर पृष्ठ देखकर उस पावन तीर्थ के साक्षात् भोपाल-3 दर्शन हो जाते हैं। आचार्यों एवं मुनियों के आलेखों के अतिरिक्त आप सर्वोत्तम श्रेणी की अत्यधिक उपयोगी सामग्री, आधुनिक साज जो "साभार" लिखकर प्राचीन विद्वानों के आलेख तथा बोधकथा सज्जा से परिपूर्ण 'जिनभाषित' के सफल संपादन हेतु मेरी अनेकानेक या प्रेरक-प्रसंग प्रकाशित करते हैं, वे यथार्थ में विचारोत्तेजक, बधाइयाँ स्वीकार कीजिये। जिनभाषित निश्चित ही जनप्रिय सिद्ध होगा। श्लाघनीय होते हैं। इस पत्रिका की प्रतीक्षा नये माह के प्रारंभ होते जैसे ही 'जिनभाषित' की प्रथम झलक देखने मिली थी, मैं ही तीव्रता से पूरे परिवार के सदस्य करने लगते हैं। यह पत्रिका उसका 'आजीवन सदस्य' बन गया था। आकर्षक साज-सज्जा के कारण छोटे-छोटे बच्चों को भी अत्यन्त प्रिय ___ 'जिनभाषित' मेरे परिवार के प्रत्येक सदस्य के मन को इतनी लगती है। उन्हें बोधकथा में ही 'चम्पक' जैसा आनन्द आ जाता है। अधिक भा गई है कि हम सभी माह के नवीन अंक का बड़ी बेसब्री मुखपृष्ठ भी सुन्दर है। से इंतजार करते हैं। जैसे ही 'जिनभाषित' प्राप्त होती है परिवार का डॉ. रमा जैन, छतरपुर (म.प्र.) प्रत्येक सदस्य उसे सबसे पहिले पढ़ना चाहता है। आज 'जिनभाषित' जनवरी 2002 अंक मिला, प्रसन्नता हुई। जिनभाषित की विषय-सामग्री धर्ममय, अत्यधिक उपयोगी, | सम्पादकीय 'शासन देवता सम्मान्य, पंच परमेष्ठी उपास्य' ज्ञानवर्धक लेख, नवीन गतिविधियों की सूचना, धार्मिक समाचार भी आद्योपान्त पढ़ा। शोधपरक प्रस्तुति के लिये बधाई। विश्वास है कि प्रदान करता है। शंका-समाधान नई-पीढ़ी को नई दिशा प्रदान करेगा। | संहितासरि पं. नाथुलाल जी जैसे सम्माननीय प्रतिष्ठाचार्य आदि विशेष समाचार (दिसम्बर 2001) 'दो समाधियाँ' पढकर मन | महानभावों की भावनाओं से ससंगत होगा। बहुत भारी हो गया। दो आर्यिकाओं की कमी समाज की अपूरणीय । आचार्यकल्प पं. टोडरमल जी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक में व्यन्तर क्षति है। देवादिक का स्वरूप और उनकी पूजा का निषेध, जिनभक्त क्षेत्रपाल, सिंघई सुभाष जैन 'आस' पद्मावती आदि देवियों के पूजन का निषेध किया है। ए-106, सागर केम्पस आचार्यकल्प पं. आशाधर जी के दृष्टिकोण को सांगोपांग चूना भट्टी, कोलार रोड, भोपाल जिनभाषित अंक 7, वर्ष 1 में आपका सम्पादकीय लेख पढ़ा। समझना अपेक्षित है। पं. नेमचन्द डोंणगाँवकर ने 'पं. आशाधर व्यक्तित्व एवं कर्तव्य' पुस्तक में नित्यमहोद्योत के आधार पर वही हमारे द्वारा 'क्या आर्यिका माताएँ पूज्य हैं?' इस प्रकाशित ग्रंथ पर निष्कर्ष निकाले हैं, जिनसे आपने असहमति व्यक्त की है। ऊँ इन्द्र आपका ध्यान गया एवं आर्यिका माताएँ पूज्य हैं, इस बात को आपने आगच्छ, आगच्छ (पृष्ठ 110-115)। पुनर्विचार अपेक्षित है। स्वीकार किया इससे प्रसन्नता हुई। क्या मैं आशा करूँ कि आपके 'साथियों की सौगात' श्री माणिकचन्द जैन पाटनी का आलेख सम्पादकीय के प्राथमिक अंश आदरणीय श्री रतनलाल जी बैनाड़ा को समाज की स्थिति का दिग्दर्शक है। यदि शासन और इतर समाज भी स्वीकार होंगे? फिर भी तोड़-मरोड़कर के अपनी ही बात को पेश करने के दुस्साहस से आप दूर नहीं हो सके, इस पर भी आश्चर्य है। के संवेदनशील महानुभाव जैन समाज की संवेदनहीनता के विपरीत __ पहिले तो आर्यिका श्राविका ही है, ऐसा घोषित करने का प्रयास टिप्पणी नहीं करते, तो शायद यह घटना अनघटी जैसी विस्मृत हो हुआ। उसका जवाब आर्यिका विदुषी पूज्य विशुद्धिमति माताजी ने जाती। यह ज्ञातव्य है कि जैन समाज की केन्द्रीय संस्थाओं का केन्द्र इंदौर ही है। हमारी उत्सवप्रियता को ग्रहण अवश्य लगेगा। दिया (अभी जिनका स्वर्गवास हुआ है) कि आर्यिका आर्यिका है, श्राविका नहीं। तब आर्यिका आर्यिका है मुनि नहीं, इस तरह की घोषणा 'दही में जीवाणु हैं या नहीं' विषय विचारोत्तेजक है। का प्रयास कर आर्यिका असंयमी अपूज्य है, दिखाने का दुस्साहस केवलीप्रणीत व्यवस्थानुसार वैज्ञानिक अनुसंधान हेतु जैन समाज को वांछित क्षेत्र में उत्प्रेरक का कार्य करना अभीष्ट है। 'श्रद्धायुक्त नमस्कार किया गया और जब 'क्या आर्यिका माताएँ पूज्य हैं?' इसके द्वारा में चमत्कार' के निष्कर्षों की सर्वव्यक्ति नहीं होती। आर्यिका माताएँ पूज्य सिद्ध की गईं एवं उनकी नवधा भक्ति होनी पत्रिका में समाचारों के साथ ही आगमाधारित आलेखों से चाहिये, यह सप्रमाण सिद्ध किया गया तो अब आपका यह प्रयास कि 'आर्यिका माता पूज्य, मुनि परमपूज्य' है, यह कहकर उनको जनजागरण हेतु समुचित सामग्री देते रहने की कृपा करते रहें। कुशल सम्पादन हेतु बधाई। नवधाभक्ति से दूर रखने का यह एक और दुस्साहस आपके माध्यम से सामने आया। अब आगे और क्या प्रयास होगा, भगवान ही जाने।। पत्रिका की एक निश्चित साइज निर्धारित करने की कृपा करें ताकि 6 फरवरी 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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