Book Title: Jinabhashita 2002 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 15
________________ छात्रावास में वर्णीजी चिकित्सालय में भ्रूण परीक्षण कराके गर्भपात जैसा जघन्य अपराध किया जा रहा है, इसके लिये अपनी आवाज अपने मुख से नहीं निकाल कर अपना मौन समर्थन करते जा रहे हैं, जो ठीक नहीं है। डॉ. श्रीमती रमा जैन आज हमें जिनेन्द्र भगवान के जीवन को देखने की आवश्यकता है। उनके जैसा हम आज नहीं बन सकते, कोई बात नहीं, उनके जैसा जब श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी छात्रावास में जयपुर में पढ़ते बनने की भावना तो कर सकते हैं। हम उनके जीवन को शास्त्रों के थे, तब एक हृदयविदारक अनहोनी घटना घटी। उस घटना से वे तनिक माध्यम से जानें और उनके बताये मार्ग को तो धारण कर सकते हैं भी विचलित नहीं हुए, आनन्दित हुए। घटना वर्णी जी के ही मुखारविन्द सेऔर हम भी परम्परा से उस जिनत्व को एक दिन पा सकते हैं। लेकिन यह संसारी प्राणी, तेल-नोन, लकड़ी में फँसा रहता है, उसके संग्रह विवाह के पश्चात् मैं श्री जमुनाप्रसाद जी काला की कृपा से जयपुर के लोभ में फँसा रहता है, इसलिये जिनत्व की महिमा को नहीं जान राज्य के प्रमुख विद्वान् पं. श्री वीरेश्वर शास्त्री के पास पढ़ने लगा था। पाता है। आप लोगों की भी वही दशा है। कैसी दशा है? जैसे एक अध्ययन के लिये सभी प्रकार की सुविधाएँ वहाँ मुझे उपलब्ध थीं। पीपल का पत्ता है, थोड़ी सी हवा लगती है तो वह डोलता रहता है। वहीं थोड़ी दूर पर 'श्री नेकर जी' की दूकान थी। उनकी दूकान का घड़ी के पेंडुलम की तरह कभी इधर. कभी उधर और पकने के बाद । कलाकन्द भारत में बहुत प्रसिद्ध था। मेरा मन भी उसे खाने का हो वह गिर जाता है, वैसे आप लोगों की दशा है कर्मों के कारण है, गया। मैंने एक पाव कलाकन्द खरीद कर खाया, तो मुझे अत्यंत स्वाद कर्मों का एक झौंका लगा, आप कभी छपारा में गिरे, कभी जबलपुर आया। रोज खाने का मन करने लगा। मैं बारह महीने जयपुर में रहा, या सिवनी आदि-आदि स्थानों में आकर गिरते रहे। यह आज की परन्तु एक दिन भी बिना खाये नहीं रहा। त्यागने की बात मन में परम्परा नहीं, अनादिकाल से इन कर्मों के झौंकों को खाते आये हो आती, पर मैं स्वाद के लोभ में त्याग न कर सका। मैं अपने निकटस्थ और आगे कितने खाना है, यह तो केवल केवली भगवान ही जान भाई बहिनों से निवेदन करता हूँ कि वे ऐसी प्रकृति न बनावें, जो सकते हैं। हम अपनी भीतरी शाश्वत सत्ता को जानें, अपने आत्मतत्त्व कष्ट उठाने पर भी उसे त्याग न सकें। जयपुर छोड़ने के बाद ही मेरी के बारे में सोचें, अपने आत्म कल्याण के बारे में सोचना प्रारंभ कर वह आदत छूट सकी। दें। कल का कोई पता नहीं क्या होने वाला है? हम अपनी आत्मसत्ता जयपुर में मैंने बारह माह रहकर पं. श्री वीरेश्वर जी शास्त्री से कातन्त्र व्याकरण का अभ्यास किया था। श्री चन्द्रप्रभुचरित एवं का ज्ञान नहीं होने के कारण हम पंचेन्द्रिय के विषयों की ओर जा रहे हैं। यहाँ कोई किसी के लिये नहीं जी रहा, सब अपने-अपने स्वार्थ तत्त्वार्थसूत्र का भी अभ्यास किया था। इतना पढ़ कर मैं बम्बई बोर्ड को देखते हैं। इस पंचकल्याणक में पाँच दिन हैं, दो दिन तो राग की परीक्षा में बैठ गया। जब मैं कातन्त्र व्याकरण का प्रश्नपत्र लिख रंग के है, जिनसे हमारा वास्ता नहीं, लेकिन कल से वीतरागता की रहा था, तब एक पत्र मेरे गाँव से आया। उसमें लिखा था कि 'तुम्हारी बात होगी। कल से हम जैसा कहेंगे वैसा होगा, अब तीन दिन तो पत्नी का देहावसान हो गया।' वीतरागता के वातावरण को बनाने वाले हैं रागमय दृष्टि को हटाकर मैंने मन ही मन कहा - हे प्रभो! आज मैं बन्धन से मुक्त हो वीतरागमय दृष्टि को लाना है। वीतरागमय दृष्टि रखने से ही वैराग्य गया। यद्यपि मैं अनेक बन्धनों का पात्र था, परन्तु यह बन्धन ऐसा का जन्म होता है। ऐसे वीतराग धर्म की शरण में रहकर वैराग्य को था, जिससे मनुष्य को अपनी सब सुधबुध भूल जाती है। उसी दिन अपने जीवन में लायें, इस भावना के साथ महावीर भगवान की जय। मैंने बाईजी को सिमरा एक पत्र लिख दिया, कि अब मैं निःशल्य होकर विद्याध्ययन करूँगा। ('जीवनयात्रा' पृ. 30-31 से साभार) प्रस्तुति : मुनि श्री अजितसागर . विद्यार्थी भवन, बेनीगंज, छतरपुर, (म.प्र.) का ज्ञान कोई किसी के लियाणक में पाँच दिनकल से वीतरा राजुल-गीत श्रीपाल जैन 'दिवा' सखी री वे आये क्यों द्वार? सखी री वे आये क्यों द्वार? सज-धज कर आये बसंत वे आ बन गये पतझर। उपवन नयन बिछाये बैठा, मधुप विमुख भय खार। कंजकली भावना समाकुल, प्राणों का सत सार। प्राणों की विनिमय बेला में, कैसे दिया बिसार। शून्य चूमते सपन हृदय पर, शून्य किया संसार। पौरुष का विजयी सेहरा सिर, विजय कहूँ या हार। राजुल अन्तर आँख जगी। सखी री अन्तर आँख जगी। वाह्यनाद ने अलख जगाई, सुन करुणा की पगी। बलि-वैभव-ढंका अनहद पर, गहरी चोट लगी। जग वैभव से विरत हुआ मन, परा नार नित सगी। स्वयं आपको निहरे निर्भय समता आँख लगी। अभय पुरुष को कहाँ आज तक, भय की प्रीत लगी। हृदय शून्य सम व्यापक पसरा, आतम मुक्त खगी। शाकाहार सदन एल-75, केशर कुंज, हर्षवर्धन नगर, भोपाल-3 -फरवरी 2002 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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