Book Title: Jinabhashita 2002 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ दर्शन पाठ जाते हैं। दर्शनं देव-देवस्य, दर्शनं पाप नाशनम्। सात तत्त्व- जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम्।।1।। मोक्ष। आठ गुण - सम्यकत्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतवीर्य, शब्दार्थ- सोपानं- सीढ़ी। सूक्ष्मत्व, अगुरु लघुत्व, अवगाहनत्व और अव्याबाधत्व। अर्थ - देवाधिदेव का दर्शन पापों का नाशक है। दर्शन स्वर्ग चिदानन्दैकरूपाय, जिनाय परमात्मने। की सीढ़ी है और मोक्ष का साधन है। परमात्मप्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नमः।।7।। दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधूनां वन्दनेन च। शब्दार्थ - चिद्-आत्मा, नित्यं-हमेशा। न चिरं तिष्ठति पापं, छिद्रहस्ते यथोदकम्।।2।। अर्थ - आप आत्मानन्द स्वरूप हैं, कर्मों को जीतने वाले हैं, शब्दार्थ- चिर- अधिक समय तक, यथा- जैसे, छिद्रहस्थे- | उत्कृष्ट आत्मा है। परम् आत्मतत्त्व के प्रकाशक सिद्धस्वरूप हैं, छिद्रसहित हाथों में, उदकं - जल। आपको हमेशा नमस्कार हो। अर्थ - जिनेन्द्रदेव के दर्शन से और साधुओं की वंदना से पाप अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम। अधिक समय तक नहीं ठहरते, जिस प्रकार छिद्र सहित हाथों में जल तस्मात्कारूण्यभावेन, रक्ष-रक्ष जिनेश्वर।।8।। अधिक समय तक नहीं ठहरता है। शब्दार्थ - त्वम्-आप, एव-ही, तस्मात- इसलिए, मम- मेरी। वीतरागमुखं दृष्ट्वा, पद्मरागसमप्रभम्। अर्थ - आपके सिवा अन्य कोई शरण नहीं है, आप ही मेरे जन्मजन्मकृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति।।3।। शरण है, इसलिए हे जिनेन्द्र। आप दया करके, मेरी रक्षा करो- मेरी शब्दार्थ- समप्रभ-समान प्रभायुक्त, दृष्ट्वा - देखकर। रक्षा करो। अर्थ - पद्मराग मणि के समान प्रभायुक्त वीतराग भगवान के न हि त्राता न हि त्राता, न हि त्राता जगत्त्रये। मुख को देखकर जन्म जन्मान्तर में किये गये पाप दर्शन से नष्ट हो । वीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति।।9।। शब्दार्थ - जगत्त्रये-तीन लोक में, परः-दूसरा कोई, वाता- रक्षा दर्शनं जिनसूर्यस्य, संसारध्वान्तनाशनम्। करने वाला, भूतो- भूतकाल में, भविष्यति - आगामी काल में। बोधनं चित्तपमस्य, समस्तार्थ-प्रकाशनम्।।4।। अर्थ - तीन लोक में वीतराग अरहन्त के सिवा और कोई जीवों शब्दार्थ - संसार ध्वान्त- संसार रूपी अंधकार का, बोधनं- की रक्षा करने वाला नहीं है, रक्षा करने वाला नहीं है। न भूतकाल विकासक, चित्त पद्यस्य - मनरूपी कमल का, समस्तार्थ- समस्त | में हुआ और न आगे होगा। पदार्थों का। जिनेभक्ति जिनेभक्ति जिनेभक्ति दिने दिने। अर्थ - जिनेन्द्र रूपी सूर्य का दर्शन संसार रूपी अंधकार का सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे।।10। नाश करने वाला व मनरूपी कमल का विकासक और समस्त पदार्थों शब्दार्थ - दिने-दिने- प्रतिदिन, मे- मुझमें, सदाऽस्तु- सदा हो, का प्रकाशक है। भवे-भवे - भव भव में। दर्शनं जिनचन्द्रस्य, सद्धर्मामृतवर्षणम्। अर्थ - प्रतिदिन भव-भव में मुझमें जिनभक्ति सदा हो, मुझमें जन्मदाहविनाशाय, वर्धनं सुख वारिधेः।।5।। जिनभक्ति सदा हो, मुझमें जिनभक्ति सदा हो। शब्दार्थ- जन्मदाह-जन्म रूपी ताप का, वर्षणम्-वर्षा करता जिनधर्म-विनिर्मुक्तो मा भवेच्चक्रवर्त्यपि। है, वर्धनम्-वृद्धि के लिये, वारिधे-समुद्र की। स्याच्चेटोऽपि दरिद्रोऽपि, जिनधर्मानुवासितः।।11।। अर्थ - जिनेन्द्र रूपी चन्द्रमा का दर्शन जन्म रूपी ताप का शब्दार्थ - विनिर्मुक्तः- रहित, मा- नहीं, स्याच्चेटोऽपि- भले नाश करने के लिये सुख रूपी समुद्र की वृद्धि के लिये, सद्धर्म रूपी | ही दुखी हो। अमृत की वर्षा करता है। अर्थ - जिनधर्म से रहित मुझे चक्रवर्ती पद भी नहीं चाहिए, जीवादितत्त्वप्रतिपादकाय, सम्यक्तवमुख्याष्टगुणार्णवाय। भले ही दुःखी दरिद्री होना पड़े, पर जैनकुल में ही मेरा जन्म हो। प्रशान्तरूपाय दिगम्बराय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय।।6।। जन्म जन्म कृतं पापं जन्म कोटि-मुपार्जितम्। शब्दार्थ - गुणार्णवाय - गुणों के समुद्र, जिनाय - जिनेन्द्र के जन्ममृत्युजरारोगो हन्यते जिन दर्शनात्।।12।। लिये। शब्दार्थ - कृतं-किये गये, कोटिमुपार्जितम्-करोड़ो उपार्जित, अर्थ - जीवादि तत्त्वों के प्रतिपादक, सम्यक्वादि आठ मुख्य | जरा-बुढ़ापा, हन्यते- नष्ट हो जाते हैं। गुणों के समुद्र प्रशान्त रूप दिगम्बर देव अरहन्त प्रभु जिनेन्द्र के लिये | अर्थ- जिनेन्द्र भगवान के दर्शन से जन्म जन्मान्तर में किये नमस्कार हो। गये करोड़ों उपार्जित पाप और जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा रोग नष्ट - फरवरी 2002 जिनभाषित 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36