Book Title: Jinabhashita 2002 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ से श्रेष्ठ समझते हैं। और बिना मायाजाल के संसार की भोगसामग्री | ऐसे देते हैं जिनसे वे पथभ्रष्ट होते हैं और हमारी आकांक्षाओं और कहीं प्राप्त हो सकती है? वासनाओं में ही तो बड़ा लुत्फ आता है। | आदर्शों के ठीक विपरीत उतरते हैं। वस्तुतः हम उन्हें कोई संस्कार इन्हीं को सन्तुष्ट करने में तो आनन्द की अनुभूति होती है। नहीं देते। कोरा छोड़ देते हैं, जिससे वे अपने आप ऐसे संस्कार अर्जित नहीं, हमें तो ऐसा धर्म चाहिए जिसमें अपने को बदलने की | कर लेते हैं, जो उन्हें गर्त में ले जाते हैं। हमारी उपेक्षा ही वह कारण साधना न करनी पड़े, संयम की तकलीफ न उठानी पड़े। अर्थात् कुछ | है जो उन्हें गलत संस्कारों की ओर ढकेलती है। हम उन्हें श्रृंगार देते भी न करना पड़े, फिर भी कुछ होता हुआ सा दिखाई दे। ऐसा धर्म हैं, पर संस्कार नहीं दे पाते। सम्पत्ति देते हैं, पर शान्ति नहीं दे पाते, है भावहीन कर्मकांड अर्थात् भावशुद्धि रहित पूजापाठ, भजन-आरती, | साधन देते हैं, पर उसके सदुपयोग का विवेक नहीं दे पाते। हम उन्हें एकाशन-उपवास, जप-स्वाध्याय आदि। इसमें न कुछ त्यागने की | सब कुछ देते हैं, पर श्रेष्ठ जीवन देने में असमर्थ रहते हैं। हमारा स्वप्न जरूरत है, न इन्द्रियसंयम की, न किसी के प्रति सहृदय होने की, | होता है कि मेरा बेटा महान् बनेगा, लेकिन जब वह शराबी, जुआड़ी, न किसी से प्रेम करने की, न करुणाभाव की। वास्तविक कर्म | मांसाहारी, व्यभिचारी, गुण्डा बन जाता है तो माथा पीटते हैं, जबकि (आचरण) से कर्मकाण्ड सरल है। हम हर जगह शार्टकट चाहते हैं। | इसमें हमारा ही हाथ होता है। हम एक श्रेष्ठ समाज की कामना करते भावशून्य क्रियाएँ धर्म का शार्टकट हैं। इनमें न हर्रा लगता है, न | हैं, किन्तु सदस्य ऐसे तैयार करते हैं जिनसे निकृष्ट समाज की रचना फिटकरी और रंग चोखा हो जाता है अर्थात् धर्मात्मा कहलाने लगते / होती है। नीम का बीज बोकर आम के फल की आशा करते हैं। इस हैं। जैसे भावशुद्धि और आत्मसंयम के बिना केवल पूजा-उपवास नौबत से बचने का एक ही उपाय है- जो सत्य है, शिव है, सुन्दर आदि से आदमी धार्मिक कहलाने लगता है, वैसे ही इनके बिना | है उसकी ओर अपनी सन्तान को बचपन से ही उन्मुख किया जाए। सम्यग्दृष्टि भी कहलाने लगता है, क्योंकि सम्यग्दर्शन तो भीतर की | आज जब अश्लील सिनेमा, दूरदर्शन के अश्लील दृश्य, अश्लील चीज है, उसे दूसरा कौन जान सकता है? और सम्यग्दर्शन होने पर | साहित्य, शराब, सिगरेट आदि कुपथ पर ले जाने वाले साधन चारों भी अविरत रहने का प्रमाण आगम में मिलता ही है। तरफ से उमड़ रहे हैं, तब सुपथ पर ले जाने का प्रयत्न कितना धर्म के सरलीकरण की माँग आवश्यक है, इसकी कल्पना की जा सकती है। 'शार्टकट' ढूंढने वाले ही कहा करते हैं कि धर्म का सरलीकरण | नई पीढ़ी धर्मविमुख क्यों? या आधुनिकीकरण होना चाहिए। जैसे धर्म को किसी आदमी या समिति । यद्यपि माता-पिता धर्म करते हैं, किन्तु सन्तान पर उसका कोई ने बनाया हो, अतः उसे जैसा हम बनाना चाहें वैसा बन सकता है असर नहीं पड़ रहा है। नई पीढ़ी धर्म से विमुख हो रही है। कारण? और जिसे हम धर्म का नाम दे दें, वही धर्म कहलाने लगेगा। धर्म | उसे बुजुर्गों का धर्म ढकोसला-मात्र दिखाई देता है। बालक और युवा तो वस्तु का स्वभाव है। वह नेचरल है, उसमें कठिन और सरल के | किसी भी आदर्श का मूल्यांकन अपने आदरणीय व्यक्तियों के आचरण भेद की गुंजाइश ही नहीं है। क्या सूर्य का प्रकाश, चन्द्रमा की | से करते हैं। यदि वह आदर्श उनके आचरण में अभिव्यक्त हो रहा शीतलता, फूलों की सुगन्ध, पानी की तरलता कठिन है? और क्या | है, तो उसे वे सत्य समझते हैं और उसकी ओर उन्मुख होते हैं। नहीं, उन्हें सरल बनाया जा सकता है? धर्म कोई शरीर या घर को सजाने | तो उसे खोखला समझकर विमुख हो जाते हैं। भले ही कोई सिद्धान्त वाली चीज या सभ्यता का तौर-तरीका भी नहीं है कि उसे आधुनिक | कितना ही सत्य और महान क्यों न हो, वह हमें तब तक प्रभावित बनाया जा सके। वह तो शाश्वत सत्य है। शान्ति आयेगी तो क्रोधादि नहीं करता जब तक उसका दृष्टांत अपने आदर्श पुरुषों में नहीं मिल विकारों के शमन से ही आयेगी, चाहे आज या हजारों वर्ष बाद। ऐसा | जाता। गुरु के उपदेश से अधिक हम गुरु के चरित्र से प्रभावित होते नहीं है कि आज क्रोधादि के शमन से आती हो और हजारों वर्ष बाद | हैं। धर्म के दर्शन न मन्दिर में होते हैं, न मूर्ति में, न शास्त्र में, न उसके बिना भी आ सकती हो। अज्ञान सदा ज्ञान से ही दूर होगा। | कर्मकाण्ड में। उसके दर्शन तो धार्मिक के जीवन में होते हैं-'न धर्मों अज्ञान से अज्ञान दूर होने का अवसर कभी नहीं आ सकता। हाँ, हम धार्मिकैर्विना।' स्वयं धर्म की साधना के योग्य न हों, यह संभव है। इसके लिये कोई धर्म यदि अच्छी चीज है तो धर्मात्माओं के जीवन में उसका जबर्दस्ती नहीं है। किसने कहा कि हम जिस कक्षा के योग्य नहीं है, | अच्छा असर दिखाई देना चाहिए। उनके व्यक्तित्व में आध्यात्मिक उसमें पढ़ने जायें? हमारी योग्यता जिस कक्षा के अनुरूप है उसी | सौन्दर्य प्रकट होना चाहिए। प्राकृतिक आवेगों, विषयवासनाओं का में प्रवेश लें, तो पाठ्यक्रम कठिन प्रतीत न होगा। धीरे-धीरे ऊँची | शमन होना चाहिए और चित्त में शान्ति, भावों में साम्य, हृदय में कक्षा में पहुँचते जायेंगे और उसका पाठ्यक्रम सरल मालूम होता प्रेम और करुणा तथा मन में दिव्य संगीत उत्पन्न होना चाहिए। लेकिन जायेगा। नई पीढ़ी देखती है कि तथाकथित धर्मात्मा सुबह से शाम तक और संतान का संस्कार नहीं शाम से सुबह तक अनेक धार्मिक क्रियाएँ करते हैं, मन्दिर जाते हैं, अपनी सन्तान के लिये हमारे पास कोई दिशा-निर्देश नहीं है। भगवान् के दर्शन करते हैं, पूजा करते हैं, सामायिक करते हैं, जो स्वयं भटका हुआ हो, वह दूसरे को क्या राह बतला सकता है? स्वाध्याय करते हैं, माला फेरते हैं, चंदन लगाते हैं, घंटी बजाते हैं, हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे हमारा नाम उज्ज्वल करें, वे ऐसे बने उपवास करते हैं, भजन और आरती करते हैं, लेकिन उनके जीवन कि उनकी तारीफ हो, स्वयं सुखी हों और हमें सुख दें। पर उन्हें संस्कार सुन्दर नहीं बन पाये हैं, वे बड़े कुरूप हैं, उनके रागद्वेषादि विकारों -फरवरी 2002 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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