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सम्पादकीय
नई पीढ़ी धर्म से विमुख
धर्म की रस्म अदायगी
अधिकतर लोग श्रद्धा से धर्म को अंगीकार नहीं करते, मजबूरी से उसकी रस्म अदायगी करते हैं। मजबूरी के कई कारण हैं- जैसे, जैन में जन्म लेना, मंदिर, मूर्ति, गुरु, उपदेश, पर्व, उत्सव कुल आदि धार्मिक साधनों का मौजूद होना, आत्मा-परमात्मा, बन्ध-मोक्ष, स्वर्ग-नरक आदि की शंका होना, लोकमत का भय, सामाजिक प्रतिष्ठा की आकांक्षा आदि जैनकुल के संस्कार हमें जब कभी मंदिर की ओर खींच लाते हैं, मूर्ति के आगे सिर झुकाने, अर्ध अर्पित करने, माला फेरने और शास्त्र का एकाध पन्ना पलट लेने के लिये मजबूर कर देते हैं। इन्हीं के कारण हम यदा कदा एकाशन-उपवास जैसा कोई व्रत धारण कर लेते हैं। किसी किसी को, मंदिर है इसलिये जाना पड़ता है, मूर्ति है, इसलिये नमन करना पड़ता है। गन्धोदक रखा रहता है, इसलिये उसका भी उपयोग अनिवार्य हो जाता है, माला दिखाई देती है इसलिये उसे फेरने की क्रिया करनी पड़ती है. प्रवचन होता है तो सुनने के लिये बैठना पड़ता है और पर्व आते हैं तो उनकी परम्परा निभानी पड़ती है। कभी-कभी एक शंका भी मन में व्यापती है। कहीं आत्मा बन्ध-मोक्ष, स्वर्ग-नरक सचमुच में न हों! अगर हुए तो धर्म न करने पर बड़ा कष्ट भोगना पड़ेगा। इसलिये कुछ धार्मिक क्रियाओं के द्वारा नरक, तिर्यंच आदि योनियों से बचा जा सकता है तो कर डालने में क्या हानि है ? इस शंका से कोई-कोई धर्म का दस्तूर निभाते है। कुछ सोचते हैं कि दूसरे लोग धर्म करते हैं, तो कहीं धर्म वास्तव में सच्चा न हो। अगर हुआ तो वे उसका लाभ उठा ले जायेंगे और हम वंचित रह जायेंगे। इसलिये हम भी करें। किसी को यह भय सताता है कि सब लोग धर्म करते हैं, मैं नहीं करूँगा तो लोग क्या कहेंगे? और कोई समाज में धर्मात्मा के रूप में प्रसिद्ध होकर सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहता है।
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इन कारणों से धर्म की रस्म अदा की जाती है, श्रद्धा से नहीं। क्यों? इसलिये कि धर्म की असलियत में विश्वास नहीं है। मन में पक्का नहीं है कि आत्मा है, मोक्ष होता है, स्वर्ग, नरक सचमुच में हैं। शास्त्र कहते हैं, गुरु उपदेश देते हैं, पर हृदय में बात जमती नहीं है क्योंकि ये चीजें दिखाई नहीं देतीं और जो वस्तु दिखाई नहीं देती उसके लिये क्लेश सहना समय गँवाना बुद्धिसंगत प्रतीत नहीं होता। प्रत्यक्ष प्रमाण से कुछ और ही चीजें सत्य मालूम होती हैं। जिन चीजों को शास्त्र और गुरु असत्य बतलाते हैं, दुःख का कारण ठहराते हैं, वही एकमात्र सत्य और साक्षात् सुख का कारण जान पड़ती हैं। आखिर देखने में यही तो आता है कि मनुष्य संसार की वस्तुओं के अभाव में ही दुःखी है। वस्तुओं की प्राप्ति से ही दुःख मिटता है, दरिद्रता मिटती है, सुख होता है, सुविधा होती है, समृद्धि आती है, बड़प्पन आता है, प्रतिष्ठा होती है, पूजा होती है, लोग पूछते हैं, इर्दगिर्द मँडराते
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फरवरी 2002 जिनभाषित
क्यों ?
हैं, सभा-उत्सवों का अध्यक्ष बनाते हैं, मालाएँ पहनाते हैं 'सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते प्रत्यक्ष अनुभव शास्त्र के कथन को अविश्वसनीय ।' सिद्ध करता है, इसलिये हम सांसारिक वस्तुओं का ही अन्वेषण करते
हैं।
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किन्तु शास्त्र, गुरूपदेश इस कार्य में खलल डालते हैं। वे सांसारिक वस्तुओं को नश्वर और दुःख का कारण बतलाते हैं। वे इतने जोर-शोर से यह बात करते हैं कि कभी-कभी उनकी बात सत्य मालूम होती है। इससे हम इन्द्र में पड़ जाते हैं प्रत्यक्ष अनुभव वस्तुओं को महत्त्वपूर्ण सिद्ध करता है, शास्त्र और गुरु उन्हें तुच्छ कहते हैं और आत्मा को सारभूत बतलाते हैं। किन्तु मन को यह बात पूरी तरह गवारा नहीं होती, इसलिए हम आधे-अधूरे मन से कुछ मोटी मोटी धार्मिक क्रियाएँ भी कर लेते हैं, पर धर्म को ज्यादा लिफ्ट नहीं देते। उसे अपने ऊपर इतना हावी नहीं होने देते कि वह हमारे सांसारिक भोगों के मार्ग में बाधक बने। हमारा मुख्य कार्य वैभव का अनुसरण ही है। धर्म तो शौक, मनोरंजन और सुविधा की चीज है। हम कोई इतने नासमझ तो नहीं है कि एक अप्रत्यक्ष आत्मा और कल्पित मोक्ष सुख को में सच समझ लें और उसके लिये प्रत्यक्ष सुख सचमुच की सामग्री का त्याग कर दें। धर्म की वही क्रियाएँ हम करते हैं, जिनसे सांसारिक भोगों की प्राप्ति में हानि न पहुँचे, ज्यादा वक्त खराब न हो और शरीर तथा दिमाग को कष्ट न उठाना पड़े। मसलन कभीकभार मन्दिर चले जाने में भगवान के सामने सिर झुका लेने में, माला फेर लेने में पूजा कर लेने में आरती उतार लेने में अथवा भजन गा लेने में कोई नुकसान नहीं होता। इनमें ज्यादा वक्त नहीं लगता, इसलिये सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति के प्रयत्न में बाधा भी नहीं पहुँचती और शरीर तथा दिगाग को कष्ट भी नहीं होता। अतः ये काम हम कर लेते हैं । किन्तु धर्म का मर्म समझने में समय लगता है, उसमें सोचने समझने की आवश्यकता होती है, जिससे मस्तिष्क को कष्ट होता है। इसलिये हम स्वाध्याय के प्रपंच में नहीं पड़ते। जितना हम करते हैं उतने में धर्म होता हो तो हो जाए, न हो तो न हो हमसे जितना होता है कर लेते हैं, बस
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धर्म का शार्टकट
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जो धर्म के मर्म को जानते हैं वे कहते हैं धर्म तो भावों की शुद्धि का नाम है अर्थात् रागद्वेषमोह को विसर्जित करना धर्म है। यह तो और भी वश की बात नहीं है। इससे सरल तो थोड़ा बहुत स्वाध्याय कर लेना है तत्वचर्चा सुन लेना आसान है। इसमें तो सिर हिलाने और जुबानी जमाखर्च से ही काम चल जाता है। भावों की शुद्धि तो साधना की बात है। क्रोध को जीतना क्या सरल है? लोभ को त्यागना क्या आसान है ? उसी से तो भोग सामग्री का संचय होता है। मान कैसे छोड़ा जा सकता है? उसी के बल पर तो हम अपने को दूसरों
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