Book Title: Jinabhashita 2002 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ फाइल ठीक बने। जुलाई से दिसम्बर तक के अंकों की प्रतीक्षा कर | धन्यवाद। दही के विषय में जो विचार-कुविचार आते रहते हैं, उस रहा हूँ। पर श्री निर्भयसागरजी का लेख वैज्ञानिक सत्यों को उजागर करने वाला डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल है। डॉ. वृषभ प्रसाद जी जैन ने जिस ग्रंथ के माध्यम से सुभाषित बी-369, ओ.पी.एम. कालोनी और सत्संगति की महत्ता को स्पष्ट करने की चेष्टा की है, वह उनके ___ अमलाई (शहडोल म.प्र.) भाषा शास्त्र के माध्यम से ही स्पष्ट हो सकती थी, ऐसे विद्वान तो 'जिनभाषित' के दिसम्बर एवं जनवरी के अंक यथासमय मिले। जिस विषय को छूते हैं, उसकी सारी बातों को पाठकों के सामने दिसम्बर के अंक में सम्पादकीय 'आर्यिका माता पूज्य, मुनि चित्रपट की तरह खोल कर रख देते हैं। ढेर सारी गंभीर समस्याओं परमपूज्य' आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज पर प्रकाशित सामग्री पर विचार-विमर्श और माथापच्ची करने के बाद जब मस्तिष्क बोझिल तथा डॉ. सुरेन्द्र भारती का लेख 'वर्तमान सामाजिक असमन्वय के सा होने लगे, तो शिखरचन्द्र जी के व्यंग्य लेख से हँसी और मुस्कुराहट कारण' एवं समाधिमरण पर स्व. मिलापचंद्र कटारिया का लेख विशेष स्वत: फूटने लगती है और मन हल्का हो जाता है। आपने उनके लेख ज्ञानवर्द्धक तथा समसामयिक सामाजिक परिस्थितियों का दिग्दर्शन को सही स्थान देकर पाठकों की रुचि का पूरा ख्याल रखा है। पत्रिका कराते हैं। में जिस तरह के समाचार और जैन जगत की गतिविधियाँ दी गई जनवरी अंक का सम्पादकीय 'शासन देवता सम्मान्य, हैं, उससे कहाँ-क्या हो रहा है, उसकी पूरी जानकारी हमें प्राप्त हो पंचपरमेष्ठी उपास्य' एक शोधपरक लेख है। सम्मान्य और उपास्य जाती है। 'जिनभाषित' का जो स्टैण्डर्ड आपने अब तक बनाये रखा में जो लोग अंतर नहीं समझते हैं, वे तो शासन देवी-देवताओं को है, उसमें किसी तरह की कमी नहीं आने पावे, इस पर निश्चित रूप ही सब कुछ मानकर चलते हैं। कुछ विशिष्ट मंदिरों में वीतराग देव से ध्यान देंगे। पत्रिका निश्चित रूप से अंधकार का दीपक साबित हो की अपेक्षा शासन देवी-देवताओं के सामने दीपक जलानेवाले रहा है, इसमें कहीं कोई संदेह नहीं है। भक्तगण अधिक मिलते हैं। वे वीतराग देव का पूजन नहीं करते, डॉ. विनोद कुमार तिवारी परन्तु सरागी देवताओं को पूजते हैं। अत: ऐसी स्थिति में श्रद्धान रीडर व अध्यक्ष, इतिहास विभाग 'कहाँ' तक रहेगा? आशा है, आपका लेख समाज के लोगों को प्रेरणा यू.आर. कालेज, रोसड़ा (समस्तीपुर) (बिहार) देने में सहायक बनेगा। 'जिनभाषित' के संदर्भ में समीक्षात्मक विचार आप तक डॉ. नरेन्द्र जैन 'भारती' पहुँचाने का प्रयास कर रहा हूँ। आशा है आप विश्लेषणात्मक ढंग से 34, एम.जी. रोड, सनावद (म.प्र.) की गई समीक्षा को अन्यथा नहीं मानेंगे। यद्यपि आजकल प्राय: लोग मासिक पत्रिका 'जिनभाषित' के सभी अंक मैंने पढ़े हैं, बहुत पत्रिकाओं के प्रकाशन पर बधाई देने, प्रशंसा करने को ही अपना अच्छी लगी। प्रत्येक अंक में कुछ-न-कुछ नवीनता तथा सभी कर्तव्य समझते हैं। यदि थोड़ी भी आलोचना होती है तो सम्पादक ज्ञानवर्द्धक सामग्री मिलती ही है। जनवरी 2002 के अंक में | और प्रकाशक सहन नहीं करते। सम्पादकीय 'शासन देवता सम्मान्य, पंचमरमेष्ठी उपास्य' पढ़ा, इसे 1. जून अंक का सम्पादकीय, 'लेख' है। सम्पादकीय किसी पढ़कर बहुत प्रभावित हुआ हूँ। सभी तथ्यों का उदाहरण के साथ प्रसंग/घटना को आधार बनाकर प्रस्तुत किया जावे, तो बेहतर होगा। समाधान किया गया है। यदि इस प्रकार से तथ्य उदाहरणों द्वारा अगले अंकों में आपने इस प्रक्रिया को अपनाया भी है। समाधानित होते रहें, तो समाज में फैले अंधविश्वासों एवं कुरीतियों 2. पत्रिका प्रकाशन की आवश्यकता क्यों? इन प्रश्नों को को निश्चित रूप से समाप्त करने में सफलता प्राप्त होगी। पाठक वर्ग ने उठाया है, लेकिन आपने इसका जिक्र तक नहीं किया। प्रत्येक अंक में किसी-न-किसी स्तुति का अर्थ प्रकाशित किया आगे आप इसका समाधान करेंगे, तो ठीक रहेगा। जा रहा है, जो बहुत उपयोगी है। इससे स्तुति सही पढ़ने में आती 3. जुलाई-अगस्त संयुक्तांक का सम्पादकीय भी जीवनवृत्त है तथा अर्थ भी ज्ञात हो जाता है। प्रायः लोग स्तुतियों को अशुद्ध | है। मुनिद्वय पूज्य प्रमाणसागरजी और समतासागरजी के प्रवचनांशों पढ़ते हैं। का अध्ययन भी किया जाना चाहिये, जिनमें प्रमाणसागरजी ने आपके सम्पादन में यह पत्रिका दिनोंदिन प्रगति करती रहे, इन्हीं सामाजिक कुरीति दहेज पर केन्द्रित बातें कहीं हैं। उनका सुझाव है शुभकामनाओं के साथ। कि हम जितना द्रव्य मंदिर बनाने में व्यय करते हैं, उतने में कई लक्ष्मीचन्द्र जैन गरीब कन्याओं की शादी हो सकती है, क्या उनके शिष्यगण इस (सेवानिवृत्त प्राचार्य) वार्ड नं. 3, गली नं.3, गंजबासौदा (म.प्र.) सुझाव को मान्य करेंगे? 'जिनभाषित' का जनवरी 2002 का अंक हस्तगत हुआ। 4. समतासागरजी ने धार्मिक और धर्मात्मा का विश्लेषण किया मुखपृष्ठ पर ही श्रवणबेलगोला-स्थित जैन मंदिर का चित्र देख मन है कि आज लोग क्रियाकाण्ड के माध्यम से धार्मिक बन रहे हैं, धर्मात्मा प्रसन्नता से भर गया। अन्दर के पृष्ठों पर जो भी लेख हैं, उनके विषय नहीं। पर्युषण पर्व में भी लोग दिखावा/प्रदर्शन करते हैं। दस दिनों में जितना कहा जाये, कम ही होगा। "शासन देवता सम्मान्य, तक भक्तिरंग में रमे लोग एकाएक दिशा परिवर्तन कर लेते हैं, क्यों? पंचपरमेष्ठी उपास्य' शीर्षक से पूरे सात पृष्ठों का सम्पादकीय लेख 5. आपके लेख/सम्पादकीय समाज में व्याप्त विषमताओं/ पढ़कर कई ऐसी शंकाओं से मन को मुक्ति मिली, जिस पर बहुत विकृतियों को उजागर करते हैं। आशा है, आप अपनी पैनी कलम अधिक प्रकाश अब तक नहीं डाला जा सका था। ऐसे लेख जैन समाज से समाज को झकझोरने की इस कोशिश को निरन्तर जारी रखेंगे। के साथ-साथ जैन साहित्य एवं इतिहास पर शोध करनेवालों के लिये दामोदर जैन 6/791, सिद्धबाबा की कालोनी, भी अति उपयोगी होते हैं। आपकी कलम और लेखनी को कोटिशः टीकमगढ़ (म.प्र.) -फरवरी 2002 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36