Book Title: Jinabhashita 2002 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 12
________________ में तनिक भी मन्दता नहीं आई है, विषय-वासनाओं का थोड़ा भी किन्तु इसमें धर्म का दोष नहीं है, तथाकथित धर्मात्माओं का शमन नहीं हुआ है, इसलिये शान्ति की हल्की सी किरण भी उनके | दोष है जो धर्म के नाम पर ढकोसला अपनाकर धर्म को कलंकित जीवन में प्रविष्ट नहीं हुई है। समस्त धार्मिक क्रियाएँ करते हुए भी | करते हैं। वस्तुतः नई पीढ़ी को वास्तविक धर्म के दर्शन ही नहीं होते, वे कषायों की तपन से तपते हैं, विकारों की वेदना से पीड़ित होते । इसलिये वह झूठे धर्म को धर्म समझाकर उसे निरर्थक मान लेती है। हैं। उनके हित को तनिक भी आघात पहुँचा, उनके अहंकार को थोड़ी | यदि उसे बड़ों के आचरण में वास्तविक धर्म के दर्शन हों, तो उससे भी चोट लगी, उनकी इच्छा के विरुद्ध जरा भी काम हुआ और वे | प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकती। क्रोध की लपटों में झुलस जाते हैं और उसके आवेग में वे सभ्यता सन्तान में अच्छे संस्कार डालने के लिये उसे धर्म के सौरभ का सारा आवरण फेंककर अपने आदिम रूप में प्रकट हो जाते हैं। | से सुरभित करना आवश्यक है। इसके लिये जरूरी है स्वयं में धर्म तब पता चलता है कि इनमें सभ्यता भी नहीं आ पाई, धर्म तो दूर के पुष्प का विकास। जैसे चंदन के वृक्ष की सुगन्ध से आस-पास रहा। सारी धार्मिक साधना पानी पर लकीर खींचने के समान व्यर्थ के वृक्ष सुगन्धित हो जाते हैं, वैसे ही धर्म की सुगन्ध से आस-पास हुई। सास की बहू से नहीं बनती, पत्नी का पति से मेल नहीं बैठता, के लोग सुगन्धित हुए बिना नहीं रहते, शर्त यह है कि धर्म का पुष्प बाप-बेटे में असामंजस्य है, भाई-भाई में तनाव है, पड़ौसियों में असली हो, कागजी नहीं। अनबन है। जिस धर्म से जीवन में जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ, मनुष्य किन्तु माया से अभिभूत होकर हम नकली फूलों को असली मनुष्य नहीं बन सका, सुखशान्ति की लेशमात्र उपलब्धि नहीं हुई, | फूल समझकर सिर पर धारण किये हुए हैं, जिससे हमारे तन को सुगन्ध वह एक ढकोसला, एक पाखंड के अलावा और क्या प्रतीत हो सकता का रंचमात्र स्पर्श नहीं हो पा रहा है। कामना है कि हमारी दृष्टि से है? ऐसे धर्म में नई पीढ़ी को रुचि कैसे हो सकती है? उससे वह माया का आवरण हटे, ताकि हम असली फूलों को पहचान कर उन्हें प्रभावित कैसे हो सकती है? रुचि न होना ही स्वाभाविक है। रुचि अपने जीवन में खिला सकें, जिससे हम स्वयं सुरभित हों और हमसे होती तो आश्चर्य होता। चारों ओर सौरभ बिखर सके। रतनचन्द्र जैन समाज से अनुरोध राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् नई दिल्ली द्वारा कक्षा11वीं की इतिहास की पुस्तक के10वें अध्याय 'जैन धर्म और बौद्ध धर्म' नामक पाठ में शामिल जैन धर्म के बारे में अनर्गल बातों को, समाज के व्यापक विरोध के कारण विलोपित करने का निर्णय लिये जाने की जानकारी मिली है। अलवर निवासी एडवोकेट खिल्लीमल जी जैन एवं जैन संस्थाओं के पदाधिकारियों की सक्रियता से प्राचीन भारत पाठ्यपुस्तक से एनसीईआरटी, दिल्ली के विद्वान निदेशक प्रो. जे.एस. राजपूत द्वारा आपत्तिजनक अंश को हटाने की कार्यवाही की गई है। किन्तु उक्त पाठ्यसामग्री के लेखक प्रो. रामशरण शर्मा एवं उनके अन्य समर्थकों ने न्यायालय में दावा प्रस्तुत कर पाठ न हटाने एवं पाठ्यसामग्री में परिवर्तन न किए जाने की माँग की है। प्रो. रामशरण शर्मा अपने हठाग्रही स्वभाव के अनुरूप गलत सामग्री को हटाने की कार्यवाही का विरोध करते हुए न्यायालयीन प्रक्रिया अपना रहे हैं, ताकि दबाव बन जाये और उनकी मनगढंत पाठ्य सामग्री ही विद्यार्थी पढ़ते रहें। अतः श्री शर्मा एवं अन्य लेखकों की इस कार्यवाही की भर्त्सना की जानी चाहिए। साथ ही जैन समाज की शीर्षस्थ संस्थाओं, विद्वानों और विधि वेत्ताओं को आगे आकर विवादित सामग्री को हटवाने की पुरजोर कोशिश करनी चाहिए। जैन समाज की सभी प्रमुख संस्थाओं, तीर्थक्षेत्रों के पदाधिकारियों एवं समाज के प्रबुद्ध वर्ग से विनम्र आग्रह है कि सभी इस महत्त्वपूर्ण मामले में अपनी सार्थक भूमिका का निर्वाह करें और स्वयं भी न्यायालय में प्रकरण दर्ज कराते हुए अपना पक्ष स्पष्ट करें। इस प्रकरण में त्वरित कार्यवाही की आवश्यकता है। सम्पादक 10 फरवरी 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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