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जिन सिद्धान्त
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उदीरणा भाव में पुरुषार्थ करने से जो कर्म सत्ता में पड़ा है उस कर्म में अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण एवं निर्जरा होती है जिस कारण से सत्ता में पड़े हुए कर्म की शक्ति हीन हीन होती जाती है। सत्ता के कर्म की शक्ति हीन होने से उदय भी होन आते हैं और भाव भी हीन होते जाते हैं। उसी प्रकार क्षयोपशम ज्ञानादि द्वारा कर्म की सत्ता इतनी क्षीण हो जाती है जिसके उदय में आत्मा के भाव सूक्ष्म रागादिक रूप रह जाता है। सूक्ष्म कर्म के उदय में रागादिक सूक्ष्म जरूर होता है परन्तु उस रागादिक में मोहनीय कर्म का बंध करने की शक्ति नहीं है परन्तु अन्य कर्म का बंध हो जाता है, जिस कारण से श्रात्मा वीतराग बन जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि
औदयिक भाव में श्रात्मा का पुरुषार्थ कार्यकारी नहीं है। कर्म का उदय ही आत्मा के पुरुषार्थ को हीनता दिखलाता है।
प्रश्न-- कार्य हुए बाद ही निमित्त कहा जाता है, ऐसे अनेक जीवों की धारणा है वह यथार्थ है या नहीं ?
उत्तर-जिन जीवों की ऐसी धारण है कि कार्य हुए बाद निमित्त कहा जाता है उन जीवों को औदयिक भाव का ज्ञान नहीं है जिस कारण से वह अज्ञानी अप्रतिबुद्ध है । कार्य हुए वाद निमित्त कहा जाता है यह लक्षण