Book Title: Jin Pujan
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 10
________________ पर को ही अपना माना, निज को खंडित पहचाना। यह जग नश्वर है सारा, नहीं दिखता कहीं ठिकान।। श्री अजितनाथ जिनराजा, मेरे उर माहिं समा जा। यहाँ कोई नहीं सहारा, प्रभु तारण तरण जहाजा ।।3।। श्रीअजितनाथजिनेन्द्रायअक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। यहाँ मोह की मदिरा पी है, अपनी ही सध बिसरी है। फिर दोष दिया है पर को, चेतन कलियाँ बिखरी हैं । श्री अजितनाथ जिनराजा, मेरे उर माहिं समा जा। यहाँ कोई नहीं सहारा, प्रभु तारण तरण जहाजा ॥4।। श्रीअजितनाथजिनेन्द्रायकामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। तृष्णा ने जाल बिछाया, मैं समझ नहीं कुछ पाया। हो गया क्षुधा का रोगी, चरु औषध पाने आया।। श्री अजितनाथ जिनराजा, मेरे उर माहिं समा जा। यहाँ कोई नहीं सहारा, प्रभु तारण तरण जहाजा ।।5।। श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। अज्ञान अँधेरा छाया, मिथ्यातम ने भरमाया। निज घर को ही प्रभू भूला, नहीं दिखता चेतन राया।। श्री अजितनाथ जिनराजा, मेरे उर माहिं समा जा। यहाँ कोई नहीं सहारा, प्रभु तारण तरण जहाजा ॥6॥ श्रीअजितनाथजिनेन्द्रायमोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 10

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