Book Title: Jambuchariyam
Author(s): Jinvijay, Chandanbalashree
Publisher: Bhadrankar Prakashan

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Page 268
________________ २३५ सोलसमो उद्देसओ आरूढस्स य एवं महापइन्नागिरिस्स मत्थंमि । मंदरगिरिगरुययरो पव्वज्जभरो समुक्खित्तो ॥५३९॥ आरोवियसामण्णो सव्वेहिं पणमिओ मुणिंदेहि । कोणियपमुहेहिं चिय पवंदिओ सव्वराईहिं ॥५४०॥ जणणि-जणएहिं सहिओ पभवपमुहपंचचोरसयकलिओ। जायासमण्णिओ सो उवविट्ठो गहियसामण्णो ॥५४१॥ सव्वंमि तओ लोए सुहासणत्थंमि भव्वकुमुयाणं । पडिबोहणेक्कससिणा भणियमिमं गणहरिदेण ॥५४२॥ "भो भो देवाणपिया ! संसारे दलहं मणुयजम्मं । तत्थ वि जिणवयणसुई सद्धा य जिणिंदवयणम्मि ॥५४३॥ दुलहो पुणो वि एसो संजमजोगंमि वीरिउच्छाहो । एयम्मि य संपत्ते पत्तं जं पावियव्वं ति ॥५४४॥ भणियं च- "चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणिह जंतुणो । माणुसत्तं सुई सद्धा संजमंमि य वीरियं" ॥५४५॥ [उत्तरा./अ.३ गा.१] जुगसमिलादिटुंतो माणुसजम्मोवमो जिणिदेहिं । दुलहत्ते पन्नत्तो भणियं च इमं जओ तेहिं ॥५४६॥ जह समिला पन्भट्ठा सागरसलिले अणोरपारंमि । पविसेज्जा जुगछिडं कह वि भमंति भमंतंमि ॥५४७॥ [ उ.नि.गा.१५९टी.] पुवंते होज्ज जुगं अवरते तस्स होइ समिला उ । जुगछिडुमि पवेसो इय संसइओ मणुयलंभो ॥५४८॥[उ.नि.गा.१५९टी.] अवि चंडवायवीईपणोल्लिया सा लभेज्ज जुगछिड्डे । न य माणुसाओ भट्ठो जीवो पडिमाणुसं लहइ ॥५४९॥ [ उ.नि.गा.१५९टी.] अइदुल्हं पि कह वि हु संपत्तं देसरूवकुलकलियं । मणुयत्तं धम्मसुई सुदुल्लहा होइ जिणवयणे ॥५५०॥ जओ- कुसुइकुमोहियचित्तो मिच्छत्तन्नाणमोहपडिबद्धो । जं जं जिणेहिं भणियं तं तं जीवो न सद्दहइ ॥५५१॥ Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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