Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 34
________________ ३. अन्तरंग परिग्रहकी प्रधानता परिग्रह ५. परिग्रह प्रमाणानुव्रतके पाँच अतिचार त म 18/२१ क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्ण धनधाग्यदासीदासकृप्यप्रमाणतिक्रमा ॥२९ क्षेत्र और वास्तुके, हिरण्य और सुवर्णके, धन और धान्य, दासी और दासके, तथा कुप्यके प्रमाणका अतिक्रम ये परिग्रह प्रमाण अणुचतके पॉच अतिचार है। ।२ (सा. ध/४/६४ मे उधृत श्री सोमदेवकृत श्लोक)। र क श्रा/६२ अतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमितपरिग्रहम्य च विक्षेपा पञ्च लक्ष्यन्ते ।६२ =प्रयोजनमे अधिक सवारी रखना, आवश्यकीय वस्तुओं का अतिशय संग्रह करना, परका विभव देखकर आश्चर्य करना, बहुत लोभ करना, और किसीपर बहल भार लादना ये पॉच परिग्रहवतके अतिचार कहे जाते है।६२॥ सा घN६४ वास्तुक्षेत्रे योगाद धनधान्ये बन्धनात् कनक्रूप्ये । दाना- त्कुष्ये भावार-न गवादौ गर्भतो मितीमतीयात् ।६४) परित्रहपरिमाणाणुबतका पालक श्रावक मकान और खेतके विषयमे अन्य मकान और अन्य खेतके सम्बन्धसे, धन और धान्यके विषयमे व्याना बॉधनेसे, स्वर्ण और चाँदीके विषयमे भिन्नवातु वगैरहके विषयमें मिश्रण या परिवर्तनसे तथा गाय बैल आदिके विषयमे गर्भ से मर्यादाको उल्लङ्घन नही करे ६४। ६. परिग्रह परिमाण व्रत व प्रतिमामे अन्तर ला स /७/४०-४२ इत पूर्व सुवर्णादि सख्यामात्रापकर्षण । इत' प्रवृत्तिवित्तस्य मूलादुन्मूलन व्रतम् ।४०= परिग्रह त्याग प्रतिमाको स्वीकार करनेवालेके पहले सोना चॉदी आदि द्रव्योका परिमाण कर रखा था, परन्तु अब इस प्रतिमाको धारण कर लेनेपर श्रावक सोना चॉदी आदि धनका त्याग कर देता है।४ ७. परिग्रह त्यागकी महिमा भ आ, म् /१९८३ रागविवागसतण्णादिगिद्धि अब तित्ति चस्क्याट्टिमुहं । णिस्सग णिवुइमुहस्स क्ह अग्इ अण तभागं पि ।११८३। -चक्रवर्तिका सुख राग भावको बढानेवाला तथा तृष्णाको बढानेवाला है। इसलिए परिग्रहका त्याग करनेपर रागद्वेषरहित मुनिको जो सुख होता है, चक्रवर्तीका सुख उसके अनन्त भागकी बराबरी नही कर सकता।११८३। (भ आ/मू /११७४-११८२ ) । ज्ञा /१६/३३/१८१ सर्वसगविनिर्मुक्त सवृताक्षः स्थिराशय' । धत्ते ध्यानधुरा धीर सयमी वीरवणिता ।३३। -समस्त परिग्रहोसे जो रहित हो और इन्द्रियोको सवररुप करनेवाला हो ऐसा स्थिरचित्त सयमी मुनि ही वर्धम न भगवान्की कही हुई ध्यानकी धुराको धारण कर सकता है ।३३। म. सा /आ /२१५ वियोगबुद्धयैव केवलं प्रवर्तमानस्तु स किल न परिग्रह स्यात् । पूर्व बद्ध अपने कर्मके विपाकके कारण ज्ञानीके यदि उपभोग हो तो हो, परन्तु रागके वियोगके कारण बास्तबमें उपभोग परिग्रह भावको प्राप्त नही होता ।१४६। केवल वियोगबुद्धिसे (हेय बुद्धिसे) ही प्रवर्तमान वह ( उपभोग) वास्तवमे परिग्रह नहीं है। यो सा अ५७ द्रव्यमात्रनिवृत्तस्य नास्ति निवृ तिरेनसा। भावतोऽस्ति निवृत्तस्य तात्त्विकी स वृति. पुन १५७१-जो मनुष्य केवल द्रव्यरूपसे विषयोसे विरक्त है, उनके पापोकी निवृत्ति नही, किन्तु जो भावरूपसे निवृत्त है, उन्हीके वास्तविकरूपसे काँका सबर होता है। २. तीनों काल सम्बन्धी परिग्रहमें इच्छाकी प्रधानता स.सा /आ/२१५ अतीतस्तावत् अतीतत्वादेव स न परिग्रहभावं बिभर्ति । अनागतस्तु आकाक्ष्याण एव परिग्रहभाग विभृयात प्रत्युत्पन्नस्तु स क्लि रागबुद्धचा प्रवर्तमानो दृष्ट । - अतीत उपभोग है वह अतीतके कारण ही परिग्रह भावको धारण नहीं करता। भविष्यका उपभोग यदि वाञ्छामे आता हो तो वह परिग्रह भावको धारण करता है, और वर्तमानका उपभोग है वह यदि रागबुद्धिसे हो रहा हो तो ही परिग्रह भावको धारण करता है। प्र सा /ता वृ./२२०/२६६/२० विद्यमानेऽविद्यमाने वा बहिरङ्गपरिग्रहेऽभिलाषे सति निर्मलशुद्धात्मानुभूतिरूपा चित्तशुद्धि कर्तुं नायाति । -विद्यमान वा अविद्यमान बहिर ग परिग्रहकी अभिलाषा रहनेपर निर्मल शुद्धात्मानुभूति रूप चित्तकी शुद्धि करनेमे नही आती। ३. अभ्यन्तरके कारण बाह्य है, बाह्यके कारण अभ्यन्तर नही प्र सा./ता बृ./२१८/२६२/२० अध्यात्मानुसारेण मूरूिपरागादिपरिणामानुसारेण परिग्रहो भवति न च बहिरङ्गपरिग्रहानुसारेण । अन्तरंग मूरुिप रागादिपरिणामोके अनुसार परिग्रह होता है बहिरंग परिग्रहके अनुसार नहीं। रा वा./हि/8/४६/७६७ विषयका ग्रहण तो कार्य है और मूर्छा ताका कारण है जाका मूर्छा कारण नष्ट होयगा ताकै बाह्य परिग्रहका ग्रहण कदाचित नही होयगा। बहुरि जो विषय ग्रहण कू तो कारण कहे अर मूर्छा के कारण न कहे, तिनके मतमें विषय रूप जो परिग्रह तिनके न होते मूच्छ का उदय नाही सिद्ध होय है। (तातै नग्नलिंगी भेषीको नग्नपनेका प्रसंग आता है।) ४. अन्तरग त्याग ही वास्तव में व्रत है दे० परिग्रह/२/२ में नि. सा /मू /६० निरपेक्ष भावसे किया गया त्याग ही महावत है। दे० परिग्रह/१/२ प्रमाद हो वास्तवमे परिग्रह है, उसके अभावमे निज गुणो में मूर्छाका भी अभाव होता है। ५. अन्तरंग त्यागके बिना बाह्य त्याग अकिंचित्कर है भा. पा./मू /३,५,८६ बाहिरचाओ विहलो अब्भतरगंथजुत्तस्स ।। परिणामम्मि असुद्धे गये मुचेई बाहरे य जई। बाहिरगंधञ्चाओ भावविहूणस्स कि कुणइ ।। बाहिरसगचाओ गिरिसरिदरिक्दराइ आवासो । सयलो णाणाज्झयणो णिरत्यओ भावरहियाण ।८६।-जो अन्तर ग परिग्रह अर्थात् रागादिसे युक्त है उसके बाह्य परिग्रहका त्याग निष्फल है ।३। जो मुनि होय परिणाम अशुद्ध होते बाह्य ग्रन्थ । छोडे तौ वाह्य परिग्रहका रयाग है सो भाव रहित मुनिक कहा करै । कल भी नहीं करै ।। जो पुरुष भावनारहित है, तिनिका बाह्य परिग्रहका त्याग, गिरि, कन्दराओ आदिमें आवास तथा ध्यान अध्ययन आदि सब निरर्थक है।८। (भा.पा./म्./४८-५४)। ३. अन्तरग परिग्रहको प्रधानता १. बाह्य परिग्रह, परिग्रह नही अन्तरंग हो है स सि19/१७/३१५/३ बाह्यस्य परिग्रहत्वं न प्राप्नोति, आध्यात्मिकस्य सग्रहात । सत्यमेवमेतत, प्रधानत्वादभ्यन्तर एव संगृहीत' असत्यपि बाह्ये ममेद मिति संकल्पवान् सपरिग्रह एव भवति । प्रश्न-बाह्य वस्तुको परिग्रहपना प्राप्त नहीं होता क्योकि 'मू ' इस शब्दसे अभ्यन्तरका संग्रह होता है। उत्तर-यह कहना सही है; क्योकि प्रधान होनेसे अभ्यन्तरका ही सग्रह किया है। यह स्पष्ट ही है कि बाह्य परिग्रहके न रहनेपर भी 'यह मेरा है' ऐसा सकल्पवाला पुरुष परिग्रह सहित ही होता है। (रा. वा/७/१७/३५४५/६)। स सा /आ /२१४/क १४६ पूर्वबदनिजकर्मविपाकात ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोग । तदभवत्वथ च रागवियोगात् नूनमे ति न परिग्रहभावम् ।१४६॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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