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परिग्रह
उपकरण कहा गया है, गुरुके वचन, सूत्रोका अध्ययन, और विनय भो उपकरण कही गयी है ।२२। (विशेष देखो उपरोक्त गाथाओकी टोका)।
२. परिग्रह त्याग व्रत व प्रतिमा
१. परिग्रह त्याग अणुव्रतका लक्षण र. के श्रा/६१ धनधान्यादिग्रन्थ परिमाय ततोऽधिकेषु नि स्पृहता।
परिमितपरिग्रह स्यादिच्छापरिमाणनामापि।६१। =धन धान्यादि दश प्रकारके परिग्रहको परिमित अर्थात उसका परिमाण करके कि 'इतना रखेगे' उससे अधिकमे इच्छा नहीं रखना सो परिग्रह परिमाण व्रत है। तथा यहो इच्छा परिमाण वाला व्रत भी कहा जाता
है ।६११ (म. सि /७/२०/३५८/११), (स, सि /७/२६/३६८/११)। का अ//३३६-३४० जो लोहं णिहणित्ता सतोस-रसायणेण सतुटठो । णिण दि तिण्हा दुट्ठा मण्णं तो विणस्सर सव्व ।३३६। जो परिमाणं कुत्रादि धण-धण्ण-सुवण्ण-खित्तमाईणं । उवओग जाणित्ता अणुव्वदं पचम तस्स ।३४०१ -- जो लोभ कषायको कम करके, सन्तोष रूपी रसायनसे सन्तुष्ट होता हुआ, सबको विनश्वर जानकर दुष्ट तृष्णाका घात करता है। और अपनी आवश्यकताको जानकर धन, धान्य, सुवर्ण और क्षेत्र वगेरहका परिमाण करता है उसके पाँचवा अणुव्रत होता है ।३३६-३४०।
२. परिग्रह त्याग महाव्रतका लक्षण मु. आ/६,२६३ जोर णिबद्वा बद्धा परिग्गहा जीवसभवा चेव । तेसि
सक्कचाओ इयरम्हि य णिम्मओऽसगो।।। गाम णगरं रणं थूल सच्चित बहु सपडिववव । अव्य त्थ बाहिरत्थ तिविहेण परिग्गह बज्जे ।२६३। - जीवके आश्रित अन्तर ग परिग्रह तथा चेतन परिग्रह, व अचेतन परिग्रह इत्यादिका शक्ति प्रगट करके त्याग, तथा इनसे इतर जो सयम, ज्ञान शौचके उपकरण इनमे ममत्वका न होना परिग्रह त्याग महावत है ।। ग्राम, नगर वन क्षेत्र इत्यादि बहुत प्रकारके अथवा सूक्ष्म अचेतन एकरूप वस्त्र सुवर्ण आदि बाह्य परिग्रह और मिश्यात्वादि अन्तर ग परिग्रह - इन सबका मन, वचन, काय कुत कारित अनुमोदनासे मुनिको त्याग करना चाहिए। यह परिग्रह त्याग क्त है ।२६३॥ नि सा //६० सम्वेसि गथाण तागोणिखेक्ख भावणापुष । पचमवदमिदि भणिद चारित्तभर वह तस्स ।६०। -निरपेक्ष भावना पूर्वक सपिरिग्रहों का त्याग उस चारित्र भार वहन करनेवालोको पाँचवाँ वत कहा है।६०
२. परिग्रह त्याग व्रत व प्रतिमा मानकर अभ्यन्तर और बाह्य परिग्रहको आनन्द पूर्वक छोड देता है उसे निर्ग्रन्थ (परिग्रह त्यागी ) कहते है ।३८६। । सा ध/१/२३-२६ सग्रन्थविरतो य , प्राग्वतवातस्फुरधृति । नैते मे नाहमेतेषामित्युज्झति परिग्रहान् ।२३। एव व्युत्सृज्य सर्वस्व, मोहाभिभवहानये। किचित्काल गृहे तिष्ठेदौदास्य भावयन्सुधी ।२६। पूर्वोक्त आठ प्रतिमा विषयक व्रतोके समूहसे रफुरायमान है सन्तोष जिसके ऐसा जो श्रावक 'ये वास्तु क्षेत्रादिक पदार्थ मेरे नहीं है, और मै इनका नही हूँ' ऐसा मकल्प करके वास्तु और क्षेत्र आदिक दश प्रकारके परिग्रहोको छोड़ देता है वह श्रावक परिग्रह त्याग प्रतिमावान कहलाता है ।२३। तत्त्वज्ञानी श्रावक इस प्रकार सम्पूर्ण परिग्रहको छोड़कर मोहके द्वारा होनेवाले आक्रमणको नष्ट करनेके लिए उपेक्षाका विचारता हुआ कुछ कालतक धरमे रहे ॥२६॥ ला स/७/३६-४२ 'नवमतिमास्थान चत चास्ति गृहाश्रये। यत्र स्वर्णादिद्रव्यस्य सर्वतस्त्यजनं स्मृतम् ।३।। अस्त्यात्मक्शरीरार्थ वस्त्रवेश्मादि स्वीकृतम् । धर्मसाधनमात्रं वा शेष नि शेषणो यताम् ॥४१॥ स्यात्पुरस्तादितो यावत्स्वामित्व समयोषिताम् । तत्सर्व सर्वस्त्याज्य नि शल्यो जोबनावधि ।४२ व्रती श्रावककी नवम प्रतिमाका नाम परिग्रह त्यागप्रतिमा है। इस प्रतिमाको धारण करनेवाला श्रावक साना चॉदी आदि समस्त द्रव्यमात्रका त्याग कर देता है ।३।। तथा केवल अपने शरीरके लिए वस्त्र घर आदि आवश्यक पदार्थोको स्वीकार करता है अथवा धर्म साधनके लिए जिन-जिन पदार्थोंकी आवश्यकता पडतो है उनका ग्रहण करता है। शेष सबका त्याग कर देता है। भावार्थ--अपनी रक्षाके लिए वस्त्र, घर वा स्थान, अथवा अभिषेक पूजादिके वर्तन, स्वाध्याय आदिके लिए ग्रन्थ वा दान देनेके साधन रखता है। शेषका त्याग कर देता है।४१। इस प्रतिमाको धारण करनेसे पूर्व वह घर व स्त्रो आदिका स्वामी गिना जाता था परन्तु अब सबका जन्मपयंन्तके लिए त्याग करके निशल्य हो जाना पडता है ।४२॥
४. परिग्रह त्याग व्रतकी पाँच भावनाएँ
३ परिग्रह त्याग प्रतिमाका लक्षण र. क. श्रा/१४५ बाह्येषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निममत्वरत ।
स्वस्थ सतोषपर परिचितपरिग्रहाद्विरत ।१४५। - जो बाह्यके दश प्रकारके परिग्रहो में ममताको छोडकर निर्ममतामे रत होता हुआ मायादि रहित स्थिर और संतोष वृत्ति धारण करने में तत्पर है वह सचित परिग्रहसे विरक्त अर्थात परिग्रहत्याग प्रतिमाका धारक है
।१४५। (चा सा /३८/६) वसु श्रा./२६४ मोत्तण बत्थमेतं परिग्गह जो विवज्जर सेसं । तत्थ विमुच्छ ण करेइ जाणइ सो सावओ णवमो ।२६] - जो वस्त्रमात्र परिग्रहको रखकर शेष सब परिग्रहको छोड़ देता है और स्वीकृत वस्त्रमात्र परिग्रहमें भी मूळ नही करता, उसे नवमां श्रावक जानो ।२६६( गुण श्रा/१८१) (द्र स.टी./४५/१६५/8)। का. अ/३८६ जा परिवज्जइ गथ अभतर-बाहिर च साण दो। पाव ति मण्णमाणो णिग्गयो सो हवे णाणी ।३८६। -जो ज्ञानो पुरुष पाप
त सू/७/८ मनोज्ञामनोनेद्रिन्य विषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च 1८1मनोज्ञ
और अमनोज्ञ इन्द्रियो के विषयोमे क्रमसे राग और द्वेषका त्याग करना ये अपरिग्रहवतकी पॉच भावनाएँ है ।। (भ. आ/मू /१२११) (चा. पा/मू /३६)। मू आ./३४१ अपरिग्गहस्स मुणिणो सहप्फरिसरसरूवगधेसु । रागहोसादीण परिहारो भावणा पच ३४१। =परिग्रह रहित मुनिके शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, इन पाँच विषयोमे राग द्वेग न होना-ये पाँच भावना परिग्रह त्याग महावत की है १३४११ स. सि/७/६/३४६/४ परिग्रहह्वान् शकुनिरिव गृहीतमासखण्डोऽन्येषा तदर्थना पतत्त्रिणामिहैव तस्करादीनामभिभवनीयो भवति तदर्जनरक्षणप्रक्षयकृताश्च दोषान् बहूनवाप्नोति न चास्य तृप्तिभवति इन्धनै रिवाग्ने लोभाभिभूतत्वाच्च कार्याकार्यानपेक्षो भवति प्रेत्य चाशुभा गतिमास्कन्दते लुब्धोऽयमिति गहितश्च भवतीति तद्विरमणश्रेय । एव हिसादिष्वपायावद्यदर्शन भावनीयम् ।" - जिस प्रकार पक्षी मासके टुकडेको प्राप्त करके उसको चाहनेवाले दूसरे पक्षियोंके द्वारा पराभूत होता है उसी प्रकार परिग्रहवाला भी इसी लोक्मे उसको चाहनेवाले चोर आदिके द्वारा पराभूत होता है। तथा उसके अर्जन, रक्षण और नाशसे होनेवाले अनेक दोषोको प्राप्त होता है, जैसे ईधनसे अग्निकी तृप्ति नहीं होती। यह लोभातिरेक्के कारण कार्य और अकार्यका विवेक नहीं करता, परलोक्मे अशुभ गतिको प्राप्त होता है । तथा 'यह लोभी है। इस प्रकारसे इसका तिरस्कार भी होता है इसलिए परिग्रहका त्याग श्रेयस्कर है। इस प्रकार हिसा आदि दोषोमे अपाय और अवद्यके दर्शनको भावना करनी चाहिए।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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