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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग ]
ताकीद है कि तुम्हें उद्विग्न देखू तो उन्हें सूचना दे दूँ । मुझे उनकी क्षमा से और भी डर लगता है । वह क्षमा से दण्ड देते हैं । [ चलना चाहती है । ]
लीला - ( कला को रोककर ) नहीं नहीं । मत जाओ। मैं उद्विग्न नहीं हूँ । क्या मैंने अब तक सब काम ठीक नहीं किया। देखोगी अभी भी वैसे ही सब काम ठीक निभाऊँगी । तुम उन्हें मेरे बारे में यह मत कहना कि मैं हार सकती हूँ । कला, वह मेरे बारे में कभी कुछ कहते हैं ? कला:- तुम्हारी उन्हें चिन्ता रहती है । वह कहते हैं कि तुम शायद यहाँ से जल्दी चली जाओगी। क्या ऐसा तुम सोचती हो ?
लीला - में ? नहीं, वह मुझ े कमजोर समझते हैं, इसलिए ऐसा कहते हैं । मैं क्यों जाऊँगी ? कला, तुम यहाँ सब छोड़कर रह रही हो तो मैं क्यों नहीं रह सकती। मैं रह सकती हूँ। मैं उधर अब नहीं देखूंगी। वह मुझे ठीक क्यों नहीं समझते ।
कला - में उन्हें कहूँगी कि तुम यहाँ ही रहना चाहती हो, जाम्रोगी
नहीं ।
लीला – हाँ, नहीं जाऊँगी । क्या वह चाहते हैं जिससे बच सकी उसी में फँसू ? मुझे जाने कब अवसर मिला है तो क्या उसको भी मैं छोड़ दूँगी ? कला, उन्होंने मेरे विषय में तुम्हें कुछ और कहा ?
कला -- नहीं, कुछ नहीं कहा ।
लीला – कला ! कला ! तुमने किसी से प्रेम किया है ?
कला -- क्या कह रही हो, लीला !
लीला - समझ नहीं आता कि प्रेम को लेकर कोई क्या करे । मैं किसी का प्रेम नहीं चाहती । में नींद चाहती हूँ । प्रेम में नींद नहीं है । क्या प्रेम में सुख है ?
कला-क्या कह रही हो !