Book Title: Jainendra Kahani 07
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 192
________________ ' चालीस रुपये १८७ आगे बातचीत का मौका नहीं मिला। सामान के लिए कुली प्रा पहँचा था। रेल आने वाली देख कर स्त्री तत्परता से उठ कर अलग खड़ी हो गई। रेल आई, कुली सामान लेकर ड्योढ़े दरजे की तरफ बढ़ा। वागीश भी जगह की जल्दी में मानो उधर बढ़ गया। स्त्री अपनी जगह से हिली न डुली, वहीं रह गई। चलती रेल से वागीशने देखा कि स्त्री जाती हुई रेल की तरफ मुह किये वहीं-की-वहीं खड़ी थी। वागीश को यह क्या हुआ ? वह बदलने लगा। लिखना कम होगया, निर्द्वन्द्वता कम हो गई । लोगों से मिलने-जुलने की तबियत न रही। परिवार में रह कर वह अकेला पड़ने लगा। जैसे अनजान में भीतर बैठ कर कुछ उसे कुतरने लगा। - असल बात यह कि अन्त तक वह सवालों को अपने से ठेलता आया था। समझता था कि यही उनका सुलझना है। वह आजाद था और किसी अन्तिमता को नहीं मानता था। सब ठीक है, क्योंकि सब गलत है। इसलिए जीवन को एक अतिरिक्त हँसी-खुशी के साथ निभाये चले जाने को हठात् सब-कुछ मानकर बिन-पाल तिरती नाव की तरह वह लहराता चला जा रहा था। ऐसे ही में वह लेखक बन गया। महान् वस्तु उसके लिए विनोद की हो सकती थी। जीवन की तरफ एक खास हलकेपन का दृष्टिकोण उसमें बस गया था। श्रद्धेय पुरुष उसकी कलम के नीचे व्यङ्ग बने रहते थे और सिद्धान्त बहम । इस कारण लेखक की हैसियत से वह बहुत लोक-प्रिय था। एक की पूजा का विषय दूसरे के हास्य का विषय बने इससे अधिक प्रानन्द की बात क्या है। इस तरह दुनिया के सब पूजितों को उपहास्य और सब मान्यतामों को मूर्खता दिखाकर वह अधिकांश लोगों का मन खुश करता था। यों बौद्धिक दृष्टि से दुनिया का वह बहुत उपकार भी करता था । उपकार, क्योंकि बहम तोड़ता था।

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