Book Title: Jainendra Kahani 07
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 211
________________ वह चेहरा याद करता हूँ तो चेहरे एक से अधिक हैं जो ध्यान से नहीं उतरते। यह भी अचरज की बात है कि वे सिर्फ़ चेहरे हैं, चरित्र नहीं; यानी उन्हें जानने का मौका नहीं पाया। जिन्हें जाना है और भुगता है, ऐसे लोगों के चेहरे मन पर उतने साफ़ नहीं रह गए, उनकी याद इतनी सचित्र नहीं हो पाती, जैसे उनको समेटना और जुटाना पड़ता है। और जो ध्यान से हटते नहीं, वे हैं, जिनके साथ लगभग व्यवहार-वर्ताव का मौका ही नहीं पाया । चरित्र खुलता है और धीरे-धीरे खुलता है। चरित्र जब सामने होता है तो चेहरा ओझल होने लगता है। उसके मुकाबले चेहरा खोलता है, कभी खुद पूरी तरह नहीं खुलता। इसलिए हम अपनी तरफ से जितना चाहें उसमें डाल दे सकते हैं। प्रेम चेहरे से होता है, ज्ञान से नहीं । यहाँ उल्लेख मैं उस चेहरे का करूँगा जो सबको ही एक उम्र में दीखता है। पन्द्रहवें वर्ष में मैं पाया हूँगा। कच्ची आँखें थीं और दूधिया दृष्टि । तब दुनिया में चीजें ही नहीं दीखती थीं, सपने भी दीखते थे । देखता क्या हूँ कि चेहरा है, जिस पर एक रंग नहीं, पल-पल जिस पर रंग पाते और जाते हैं । निश्चय ही उसका रंग उजला है और गोरा है, और वही बना रहता है । लेकिन गोराई में अनेक रंग हैं और उन्हीं की छायाएँ २०६

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