Book Title: Jainendra Kahani 07
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 209
________________ जैनेन्द्र की कहानियां [सातवाँ भाग आशीर्वाद देने आए हो। यह प्यार होगा। और तुम इसको समझना चाहते हो।" वह सचमुच जवान था और उसको सुध-बुधः किसी बात की न थी। मैंने कहा कि यह लो, और कहने के साथ पत्रों का बण्डल उसके सामने किया । "क्या इससे प्यारा तुम्हारे पास कुछ है? शायद न हो तो इसे ही ले जानोगे ? देकर उसे अभय दोगे और सदा के लिए आश्वासन दोगे। प्यार होगा तो तुम यही करोगे। नहीं करोगे तो मुझसे सुनो कि प्यार न था, वह सिर्फ चलता भाव था।" में खड़ा हो पाया। कहा, "लो अब यह अपनी चीज़ सम्भालो और जानो।" उस समय उससे और कुछ भी नहीं बना। बन्डल उठा, नीची निगाह किए वह चला गया। बात आई-गई हुई । कई बरस बाद कुमार के जेठे भाई से मिलना हुआ, जो मेरे सहपाठी रहे थे। उनकी आयु में बहुत अन्तर था और वह कुमार के लिए पिता-सरीखे थे। मैंने पूछा, "कुमार का क्या हाल है ?" मालूम हुआ, बहुत अच्छा हाल है । घर-गृहस्थी है और दो बच्चे हैं। मैंने प्रसन्नता व्यक्त की और मित्र बोले, "भाई शुक्ल, तुमने क्या जादू किया कि "क्यों, क्या हुआ ? शादी वहीं हुई न, जहाँ चाहता था ?". "वही तो कहता हूँ" मित्र बोले, "कि वहाँ नहीं हुई। शायद हो सकती थी, पर कुमार ही न माना । आगे बढ़कर उसने उस कन्या के अन्यत्र विवाह में योग दिया। उसके बाद जहाँ उसकी भाभी ने उसका

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