Book Title: Jainendra Kahani 07
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 191
________________ १८६ जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग] । वागीश की छाती पर जैसे किसी ने मुक्का मार दिया। वह सन्न रह गयो, बोला, "क्या मतलब ?" स्त्री और भी मुस्कराहट के साथ बोली, "आपका मैं क्या विगाड़ रही हूँ ? कहती हूँ, चली जाऊँगी। प्लेटफार्म सब का है।" ___ वागीश उस प्रगल्भ नारी की तरफ आँख फाड़ कर देखता रह गया, "तो तुम नहीं जानोगी ?" मुस्कराती हुई बोली, “न, नहीं जाऊँगी।" वागीश इस पर कुछ देर खोया । फिर असमन्जस काट कर बोला, "अच्छी बात है । तो तुम्हें खड़ी देख कर लोग क्या समझेगे ? सामान पर बैठ क्यों न जामो?" . सुनते ही वह होल्डाल पर खुद बैठ गई और चमड़े का सूट अलग सरका कर बोली, "आप भी बैठ जाइये।" वागीश भी बैठ गया। तब स्त्री बोली, "मुझे स्टेशन पर छोड़ जाते तुम्हें कुछ विचार नहीं होता है ! तुम्हें किसी भी नौकरानी वगैरह की जरूरत नहीं है। बस, खान-कपड़े पर में पड़ी रह सकती हैं, मैं पीस लेती हूँ, झाड़ -बुहारी, चौका-बासन कर लेती हूँ, कपड़े धो लेती हूँ। ऐसी किसी नौकरानी की तुम्हें जरूरत नहीं है ?" ___ वागीश ने उसे देखा । कठोर होकर कहा, "नहीं, मुझे जरूरत नहीं। मैं अमीर नहीं हूँ।" "मैं कुछ नहीं मांगती, रूखे-सूखे में रह लूगी। पर तुम समझदार होकर स्टेशन पर मुझे कहाँ छोड़े जा रहे हो ?" । वागीश को बहुत-बहुत बुरा लगा। उसने कहा, "मुझे नहीं मालूम था कि तुम ऐसी होगी ! तुम क्या चाहती हो ? यह लो, मेरे पास बीस ही रुपये और हैं । लेकर कोई मेहनत-मजूरी देखो।" ' स्त्री ने चुपचाप रुपये ले लिए। कुछ नही कहा; बस वागीश के मह की तरफ देखती रही।

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