Book Title: Jainendra Kahani 07
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 206
________________ प्यार का तर्क २०१ मैने स्थिति देख कहा, "मुझे तो इस विवाह में कोई कठिनाई नहीं दीखती। लड़की तैयार है, फिर माँ-बाप की बाधा क्या बड़ी बात है ! वह अबोध तो है नहीं ?" फिर बात को बीच में ही लेकर कुमार बोला, "तुम यह कहते हो ?" उसकी आँखों में चमक प्रागई । "मैं भी यही कहता हूँ। लेकिन, कैसे होगा ?" ____ "कसे क्या होगा ?" मैंने कहा, "वैसे होगा, जैसे विवाह हुआ करते है। अरे, तुम्हारे या उसके मां-बाप का तो ब्याह होना नहीं है। या दो जातियों में नहीं होना है। ब्याह लड़के-लड़की का होता है। जाति क्या माथे पर लिखी आती है ? किस सोच में पड़े हो ? इतने खत हैं । उस बिचारी की मन की भी तो सोचो । घर में रह कर अपना मन तुम्हारे पास भेजती है और दीवार-दरवाजे तोड़ कर गाँव-देहात में निकल कर तुम्हारे पास नहीं आ सकती तो तुम यह-सब दोष उस पर डालने लग गए ? क्यों कुमार ? यह तुम्हारा प्यार है ? इतनी ही तुम में उससे हमदर्दी है ?" . ___यहाँ एक बात कहना जरूरी है-वह यह कि मुझे बता दिया गया था कि लड़की का सम्बन्ध अन्यत्र हो रहा है और कुमार को यद्यपि इसका पता नहीं है तो भी निराशा में एकाध बार वह अपनी जान लेने की कोशिश कर बैठा है । अब अपनी से ज्यादा उसकी जान उसे प्यारी लगने लगी है कि ली जाय। यह तब, जब ब्याह हर-तरफ़ से असम्भव बना दीखे । रह-रह कर वह हर तरफ से सम्भव और अगले क्षण उतना हो असम्भव उसे दीख पाता है और वह परेशान होता है । __ मैंने कहा, "क्यों, कुमार, बोलते क्यों नहीं ? इतना हृदय-हीन तुम्हार प्यार है ? कि जो इतने विश्वास और समर्पण से तुम में प्राने को तैयार है, उसको इतना गलत समझो ? उसको कुछ सहानुभूति न दे सको ? ये पत्र जिनमें उसने अपना मन निचोड़ कर बहा दिया है, उनका अपमान करो ?"

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