Book Title: Jainendra Kahani 07
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 194
________________ चालीस रुपये य के अन्तर में या उसके पार कुछ दीख तो सकता नहीं, इससे उधर आँख देना ही भारी मूर्खता है । बस, यह तय करके नाचते-गाते हुए वर्तमान के क्षणों पर तिरता-सा हुआ वह रहता था ! पर इलाहाबाद से पाया कि कुछ दिनों में उसे प्रतीत होने लगा कि उसे शराब की जरूरत है। अन्दर कुछ फूटना चाहता है, जिसे डुबाना चाहिए। ग़म नहीं था जिसे ग़लत करता है। पर तो भी कुछ था, जो अनिच्छित होकर भी भीतर से एकदम शून्य नहीं हो पाता था, अब तक वह अपनेपन को अपने पास न रखता था। पर अब जरूरत हुई कि वह अपनेपन को भुलाए । यानी वह अनिष्ट वस्तु उसमें हो चली थी जिसका नाम है अपनापन, और जो अभिशाप है । उसी का दूसरा नाम हैआत्मालोचन । इससे बड़ी वेदना क्या है कि प्रादमी को प्रात्मा मिले ? माता शिशु./ को जन्म देती है, तो यह स्वयं उसका पुनर्जन्म होता है। व्यक्ति को अपनी प्रात्मा मिलती है, तो भी पुनर्जन्म के बिना नहीं। जन्म के लिए मरना पड़ता है । वह कुछ ऐसा ही वागीश के साथ हो रहा था। वह अपने भीतर किसी का जन्म नहीं चाहता था। पर उसके बावजूद एक बीज उसमें गर्भस्थ हो पड़ा था, इसलिए अपने बावजूद उसे मरना पड़ रहा था। .. किन्तु स्वेच्छा-पूर्वक मरने की कला किस को प्राती है ? इससे जिस वस्तु को उसके नूतन जन्म को सम्भव करने के लिए उसमें से मर मिटना चाहिए, वागीश उससे चिपटा रहना चाहता था । परिणाम था एक घोर मानसिक द्वन्द्व । लिखना भाड़ में चला गया, शोहरत का ख्याल और लौकिक कर्तव्यों की चिन्ता चूल्हे में पड़ गई। बस, शराब की मात्रा उसकी बढ़ती जाने लगी। ___इन ढंगों से हाल बिगड़ता ही गया। पैसे की कमी हई। पर कमी में रहने की उसकी आदत नहीं थी, न उसमें बेईमानी का बीज था।

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